वक्त के पायदानों पर
दुपाये खड़ी है जिंदगी
रेत के मानिंद
हथेली से फिसलती जिंदगी
जागकर नहाई धोई
और चल पड़ी है जिंदगी
उबड़ खाबड़ रास्ते
औऱ सड़कों पर दौड़ती जिंदगी
वो ही पुराने साथी संगी
वो ही पुराने पत्ते हैं
जाने पहचानें चेहरे यहां
पर कब कहाँ ये खिलते हैं
ऊँघते पेड़ों के जैसे
साँसों में सुस्ती छाई है
रोज के नीरस किस्सों ने
शहर में खलबली मचाई है
वही पुराने पेड़ पौधे
और हमराही मिलते हैं
पर कब कहाँ ये जिंदगी के
संगी साथी बनते हैं
इंसान हैं पर कब कहाँ
ये इंसान जैसे मिलते हैं
मन की उधेड़ बुन यूँही
राहों को छोटा करते हैं
कब कौन सी बात यहां
कोरों को गीला कर जाती
जिंदगी है जिंदगी
पानी सी परवश बह जाती
पेट भरने की खातिर
लौटकर घर जाती है
वही पुराने पत्ते, चंद ख्वाब, अक्स
सब मालूम हैं
पर तर्क में उलझा ये जीवन
स्वप्न्न के मानिंद है
चलते रहे तो जिंदगी है
रुक गए तो मौत है
जिंदगी का हर नया दिन
कोरा पन्ना संग दवात है
अरमानों की लेखनी है
सबको कुछ तो लिखना है
कोरे पन्ने को हमेशा ऐसे ही भरते रहना है।

यह कविता हमारे कवि मंडली के नवकवि विकास कुमार जी की है । वह वित्त मंत्रालय नार्थ ब्लाक दिल्ली में सहायक अनुभाग अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं । उनकी दैनिंदिनी में कभी कभी उन्हें लिखने का भी समय मिल जाता है । वैसे तो उनका लेखन किसी वस्तु विशेष के बारे में नहीं रहता मगर न चाहते हुए भी आप उनके लेखन में उनके स्वयं के जीवन अनुभव को महसूस कर सकते हैं । हम आशा करते हैं की आपको उनकी ये कविता पसंद आएगी ।
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