रह गए हैं
कुछ पीले पत्ते
अधूरे ख्वाब
बुझी राख
उजड़ा जमाना
कातिल अकाल
औऱ बिखरे तिनके
मेरे भीतर
मेरे जहन में
बहुत अंदर तक।
अब मैं मैं नहीं
ना ही वो हरे भरे पत्ते हैं
न ही वो संजीले ख्वाब हैं
ना वो सुलगती आग है
बह रहा हूँ पानी सा परवश
हूँ जैसे कोई खाली कमरा
अस्त व्यस्त हो गया हो
जैसे मेरे भीतर- सब
टपकता है छत से लहू बनकर
बिन बारिश – टप टप
नहीं सजा है कोई ख्वाब,
बिस्तर
सब चीजें उलट पलट सी गईं हैं
जाले ही जाले रह गए हैं
एक अरसे से मेरे भीतर
मेरे जहन में।
– विकास कुमार

यह कविता हमारे कवि मंडली के नवकवि विकास कुमार जी की है । वह वित्त मंत्रालय नार्थ ब्लाक दिल्ली में सहायक अनुभाग अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं । उनकी दैनिंदिनी में कभी कभी उन्हें लिखने का भी समय मिल जाता है । वैसे तो उनका लेखन किसी वस्तु विशेष के बारे में नहीं रहता मगर न चाहते हुए भी आप उनके लेखन में उनके स्वयं के जीवन अनुभव को महसूस कर सकते हैं । हम आशा करते हैं की आपको उनकी ये कविता पसंद आएगी ।
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शानदार। खुद की कविता काव्यशाला पर भेजने हेतु क्या करना होता है??
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