मैं चुप हूँ
चुप ही रहूँगा
इंतजार करूँगा
उस पल का
जब आएगा कोई वहशी
मेरे द्वारे
मेरे लहू के टुकड़े को
ले जाने
चुपके से
किसी मंदिर
किसी मस्जिद
किसी कूड़े के ढेर या
किसी सुनसान जगह में
अपनी और समाज की
विकृत मानसिकता
का परिचय देगा वह
तब मै रोऊँगा
कोसूंगा सिस्टम को
अभी मैं चुप हूँ
अभी बाँट दी हैं मैंने
निर्भया, आशिफा, अरुणा
हिन्दु, मुस्लिम के गलियारों में
एक अस्थायी समाधान के लिए
सियासत का उबाल है
मेरे लहू में अभी
पर मैं चुप हूँ
तुम नहीं जान पाओगे
मेरी खामोशी का राज
मैं देश से विलग
बंटा हूँ अभी
हिन्दू ,मुस्लिम
दलित सवर्ण में
अभी खानों की
सियासत है हावी
मेरे लहू में
नहीं है मेरा
कोई ईमान
हाँ मैं चुप हूँ
उस दिन में भी
होऊँगा
अकेला भीड़ में
जब खिंचेगा
दामन कोई
मेरी लाज का
चीखूँगा केवल
उस दिन
पर उस दिन
होगी चुप
सारी क़ायनात
दशों दिशाएँ
हाँ तब तक
मैं चुप हूँ
तब तक मै
चुप हूँ ।

यह कविता हमारे कवि मंडली के नवकवि विकास कुमार जी की है । वह वित्त मंत्रालय नार्थ ब्लाक दिल्ली में सहायक अनुभाग अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं । उनकी दैनिंदिनी में कभी कभी उन्हें लिखने का भी समय मिल जाता है । वैसे तो उनका लेखन किसी वस्तु विशेष के बारे में नहीं रहता मगर न चाहते हुए भी आप उनके लेखन में उनके स्वयं के जीवन अनुभव को महसूस कर सकते हैं । हम आशा करते हैं की आपको उनकी ये कविता पसंद आएगी ।
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