कब ये दुनिया पलट जाये
कब ये ताज बेताज हो जाये
हुकूमत रहती नहीं हमेशा चन्द साँसों की
ये दुनिया है मोहताज कुछ ख्वाबों की
आबादी बढ़ न सकेगी जमीं पर संसाधनों के पार,
हुक्मरानों की पाबंदी है प्रकृती के ख़ज़ानों पर,
कल भी उड़े थे कुछ मगरूर परिंदे बादलों के ऊपर
आज धरा की मिट्टी बन बैठे खुद खाक होकर
तुम पा भी लो तो कब तक सहेज पाओगे खुद को
जो जलेंगे दिए बूझकर खोएंगे अपनी शोहरत को
वो अमीर क्या हुए हमको गरीब समझ बैठे
चन्द लम्हों के मेहमान , लम्हों को जागीर समझ बैठे
आओ सब चलें वस्ल की राह पर
अपने हिस्से की मिट्टी रखे हर शख्स यहाँ पर।

यह कविता हमारे कवि मंडली के नवकवि विकास कुमार जी की है । वह वित्त मंत्रालय नार्थ ब्लाक दिल्ली में सहायक अनुभाग अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं । उनकी दैनिंदिनी में कभी कभी उन्हें लिखने का भी समय मिल जाता है । वैसे तो उनका लेखन किसी वस्तु विशेष के बारे में नहीं रहता मगर न चाहते हुए भी आप उनके लेखन में उनके स्वयं के जीवन अनुभव को महसूस कर सकते हैं । हम आशा करते हैं की आपको उनकी ये कविता पसंद आएगी ।
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अंत की चार लाइने लाजबाब है🙋
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very nice lines
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bahut bahut dhanyvaad
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