अधूरे से हम – विकास कुमार (अतिथि लेखक)

तुम अधूरे मैं
अधूरा दिन अधूरे
रात अधूरी
भावनाएँ जो बह रहीं हैं
उठ रहीं तरंग अधूरी
पनघट अधूरा
पगडंडी अधूरी
वक्ताओं की बात अधूरी
सिसकियाँ जो रह गईं हैं
लग रहीं अधूरी अधूरी |

चाँद अधूरा
सूरज अधूरा
इंद्रधुनष का रंग अधूरा
बसंत ऋतु के पीत वसन मे
लहलहाती सरसों अधूरी
फफड़ाती होठों की
काँपती  इच्छा अधूरी |

जीवन अधूरा
म्रत्यू अधूरी
संयोग अधूरा
वियोग अधूरा
नाक के छिद्रों से आती जाती
हैं साँसे अधूरी

सीपीयाँ अधूरी
लहरें अधूरी
समुन्द्र अधूरा
नदियां अधूरी
झनझनाती वादियों मे
युगलो की मुहब्बत अधूरी

बचपन अधूरा
यौवन अधूरा
रात अधूरी
बात अधूरी
जब मिल गए तो रह गई
मिलन की छूयन अधूरी|

सपने अधूरे
हकीकत अधूरी
तुम रहीं तो मैं अधूरा
मैं रहा तो तुम अधूरी
उस पर यदि कुछ हो गया तो
चाहत अधूरी
मोहब्बत अधूरी |

अंक अधूरे
शब्द अधूरे
जुडने को बेताब सारे
लग रहे अधूरे अधूरे
पतित से पावन बनें सब
ललक बुझी सी है अधूरी
ज़िंदगी मेरी अधूरी
ज़िंदगी तेरी अधूरी |

तो जग अधूरा
मग अधूरा
हम अधूरे , वो अधूरा
अधूरेपन से पूर्णता की ओर
जाती चाह अधूरी
अधूरेपन को ना कम आंकों
रस अधूरेपन का तुम फाँको,
अहसास सुंदर अधूरे पन के
पूर्णता की ओर ले जाते
जीवन का लक्ष्य बताते
अधूरेपन को पूर्ण कराते ||

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कवि – विकास कुमार

यह कविता हमारे कवि मंडली के नवकवि विकास कुमार जी की है । वह वित्त मंत्रालय नार्थ ब्लाक दिल्ली में सहायक अनुभाग अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं । उनकी दैनिंदिनी में कभी कभी  उन्हें लिखने का भी समय मिल जाता है । वैसे तो उनका लेखन किसी वस्तु विशेष के बारे में नहीं रहता मगर न चाहते हुए भी आप उनके लेखन में उनके स्वयं के जीवन अनुभव को महसूस कर सकते हैं । हम आशा करते हैं की आपको उनकी ये कविता पसंद आएगी ।

 

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