बेड़ियाँ पिघल रहीं, प्रचंड नाद हो रहा बंधन विमुक्त हो रहे, निनाद घोर हो रहा। सामाजिक वर्जनाओं पर,रूढ़ियों ढकोसलों पर कुत्सित मान्यताओं पर, प्रबल प्रहार हो रहा।
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वासंती मौसम याद रहा – ज्ञान प्रकाश सिंह
वासंती मौसम याद रहा, पतझड़ का मौसम भूल गए बाग़ों की बहारें याद रहीं, पत्तों का गिरना भूल गए। शहर पुराना लोग नए थे, सतरंगी दुनिया क्या कहिये वह बॉडी लैंग्वेज याद रही, अंदर की केमिस्ट्री भूल गए।
कच्ची उम्र के पक्के साथी – ज्ञान प्रकाश सिंह
वह उम्र भले ही कच्ची थी, पर तब के साथी पक्के थे। वह निश्छलता की दुनिया थी जिससे पटती दिल से पटती वे हमको अच्छे लगते थे, हम उनको अच्छे लगते थे। वह उम्र भले ही कच्ची थी, पर तब के साथी पक्के थे। वह स्वार्थ रहित नाता होता, भोला होता भावुक होता
कविता का फास्ट फूड – ज्ञान प्रकाश सिंह
शीघ्रता की साधना, असिद्ध करती जा रही है, धैर्य की अवधारणा अब लुप्त होती जा रही है। विश्वअंतर्जाल रचना जब से हुई है अवतरित, सूचना तकनीक तब से हो रही है विस्तारित। विश्व होता जा रहा है विश्वव्यापी जाल शासित, संबंधों की दृढ़ता को तय कर रहा है ‘लाइक’। हृदयगत सम्वेदना अब दूर होती जा रही है, धैर्य की अवधारणा अब लुप्त होती जा रही है।
टैन्जेंट – ज्ञान प्रकाश सिंह
समानान्तर रेखाओं से तो तिर्यक रेखायें अच्छी है जो आपस में टकराती हैं लड़ती हैं तथा झगड़ती हैं और कभी टैन्जेंट हुईं तो कोमलता से छूती हैं ।
जब तुम आये – ज्ञान प्रकाश सिंह
धीरे से खोल कपाटों को, नीरवता से जब तुम आये, चमकी हो चपला जैसे, चितवन में विद्युत भर लाये। जब तुम आये, जैसे रचना चित्र कल्पना, जैसे जटिल जाल स्मृति के भाषा के अपठित भावों के, प्रश्न लिए पलकों पर आये। जब तुम आये,
तुषार कणिका – ज्ञान प्रकाश सिंह
नव प्रभात का हुआ आगमन है उपवन अंचल स्तंभित पुष्प लताओं के झुरमुट में छिपकर बैठी हरित पत्र पर बूँद ओस की ज्योतित निर्मल
स्मॅाग – ज्ञान प्रकाश सिंह
ये कैसी धुँध छाई, ये धुआँ कहाँ से आया? मंत्री जी से जब पूछा, ये कैसी धुँध आई बोले, लोकतान्त्रिक है, सब पर है छाई, अमीर और ग़रीब में, फ़र्क नहीं करती इसीलिए तो हमने एनसीआर में बुलाया। ये कैसी धुँध छाई, ये धुआँ कहाँ से आया?
क्योंकि एक औरत थी वो – शिवम कनोजे
कभी कोख़ में लड़ी थी वो कभी कोख़ से लड़ी थी वो, कभी चंद रुपयों में बिकी थी वो, कभी दहेज़ के नाम पर ख़रीदी गई थी वो, कभी अपने ही घर में बंधी थी वो, तो कभी औरों के घर की बंदी थी वो, कभी औरों ने उसे सिर का ताज बनाया,
आज शर्मसार हूँ – शिवम कनोजे
हाँ, मैं भारतीय हूँ कभी गर्व था इस बात पर, लेकिन आज शर्मिंदा हूँ, हाँ, कभी गर्व करता था, शहादत पर जवानों की, आज बेमतलब हो गयी वो शहादत, औरों से बचाते रहे,इस देश को, पर अपनों ने ही नोंच खाया, आज शर्मसार हूँ, भारतीय होने पर अपने,


