हाँ, मैं भारतीय हूँ
कभी गर्व था इस बात पर,
लेकिन आज शर्मिंदा हूँ,
हाँ, कभी गर्व करता था,
शहादत पर जवानों की,
आज बेमतलब हो गयी वो शहादत,
औरों से बचाते रहे,इस देश को,
पर अपनों ने ही नोंच खाया,
आज शर्मसार हूँ,
भारतीय होने पर अपने,
कभी गर्व करता था वह तिरंगा भी अपने आप पर,
यूँ कफ़न बनकर शहीदों का,
आज शर्मसार हैं,
लहराने पर अपने,
चंद दरिंदो की आवाज़ बनकर,
कभी गर्व करता था,लाल कहलाने पर,
उस भारत माँ का,
आज शर्मसार हूँ,
लायक भी नही मैं,आज बेटा कहलाने को उसका।
हाँ, कभी गर्व करता था,लाल कहलाने पर,
उस भारत माँ के,
आज खुद की नज़रों में क़ातिल हूँ,
आबरू भी न बचा सका,
बेटीयों की उसकी।
कभी गर्व करता था हिंदुत्व होने पर अपने,
आज शर्मसार हूँ,
उस पवित्रस्थल को न बख़्श सका,
अपने उन नापाक इरादों से,
आज शर्मसार हूँ,
हिन्दू होने पर अपने।
यूँ तो कभी गर्व था,मर्द कहलाने पर अपने,
आज शर्मसार हूँ,
खुद का ही माँस नोचे जा रहा हूँ।
कभी गर्व हुआ होगा राम भगवान् को भी,
एक भरोसा बनकर लोगो के जेहन में,
आज शर्मसार हैं वह भी,
दुष्कर्मियों का नारा बनकर।
कभी खुशनसिब मानता था इंसान होने पर अपने,
आज खुद की ही नज़रो में गिर चूका हुँ,
उस नन्ही बच्ची की मासूमीयत न समझ सका,
आज शर्मसार हैं
इंसानियत भी,मेरे भीतर बसने पर,
कभी महफूज़ महसूस किया करती रही होगी वह नन्ही बच्ची,
उस खाकी को देखकर,
आज पैरों तले रौंद दी गयी,
वो मासूम सी मुस्कान,
उसी खाकी की आड़ में,
आज शर्मसार हैं,
वह खाकी भी हर एक स्पर्श से उस बदन के,
कभी इन्साफ दिखता होगा,
सफेदी में उस खादी की,
उन मासूम आँखों के सपने भी न देख सकी,
महानता उस खादी की ,
यूँ तो भविष्य ही उजाड़ दिया,
उस खिलती हुई मुस्कान का,
चंद दरिंदो ने ,
उस सफ़ेद खादी की आड़ में,
आज शर्मसार हैं,
वह सफ़ेद खादी भी,
आबरू बनी रहने पर उन भेडियो की।
कभी गर्व रहा होगा,
उस चंदन के तिलक की सच्चाई पर,
यूँ बर्बरता से शिकार हो गईं,वो मासूम,
उस हैवानियत की,
उस चन्दन के तिलक की आड़ में,
आज वो चन्दन भी शर्मिंदा होगा,
ललाट बन सजने पर माथे पर उसके।
आज शर्मसार सिर्फ वो तिरंगा नहीं,
आज शर्मसार सिर्फ़ वो भारतमाता भी नही,
आज शर्मसार वो ख़ाकी वर्दी भी नहीं,
न तो सिर्फ़ वो चन्दन का तिलक,
और न ही वो सफ़ेद खादी हैं,
बल्कि आज शर्मसार मैं हूँ,
क्योंकि मैं ही वो भारतीय हूँ,
क्योंकि मैं ही वो हिन्दू हूँ,
क्योंकि मैं ही वो भारत माता का लाल हूँ,
क्योंकि मैं ही वो इंसान हूँ,
क्योंकि मैं एक मर्द हूँ,
और अगर यह होती हैं मर्दानगी,
जो एक मासूम की चींखें दबोच दे,
और उसके बावजूद इस हैवानियत को देखकर
भी मुझे घर में चुप्पी साध बैठने की इज़ाज़त देती हैं,
तो लानत हैं ऐसी मर्दानगी पर,
और इससे अच्छा होता की ,
मैं नामर्द होता।

यह कविता हमारे कवि मंडली के नवकवि शिवम् कनोजे जी की है ।शिवम् कनोजे मध्य प्रदेश के बालाघाट शहर के रहने वाले हैं । उनका कहना है की उन्होंने बचपन में एक मित्र के साथ लिखने का प्रयास किया था तब पहली अनुभूति हुई थी की वे लिख सकते हैं कुछ सालों बाद एक मित्र की लिखने की सलाह देने पर लिखने का मन बनाया । लेकिन कभी प्रेरणा का अभाव रहा और कभी समय का । कुछ लिख कर मिटा दिया और कभी मिटा हुआ लिखने के प्रयास में असफल रहे । कुछ समय बाद अपनी एक दोस्त के कहने पर लिखना आरंभ किया,वे प्रेम-रिश्ते एवं सामाजिक मुद्दों पर लिखने की रूचि रखते हैं । कॉलेज में दोस्तों के प्रेम-प्रसंग पर कविताएँ लिखने से उत्साहवर्धन हुआ। नमन खंडेलवाल द्वारा दिए गए अवसर के रूप में “इश्क़ ऐ नग़मा” में “प्यार था किसी और से” पहली कविता के रूप में प्रकाशित हुई। शब्दांचल में इनकी कविता “उसूल-ऐ-ज़िंदगी” चयनित की गयी हैं।इनका मानना हैं जो भी चीज़े दिल तक पहुँचती हैं उन्हें पन्नो पर उतार पाने पर ही संतुष्टि की अनुभति होती हैं।
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