धधक पौरुष की – विकास कुमार

मैं चला उस ओर जिधर

सूर्य की किरणें असीम

प्रसुप्त पौरुष की रगों में

धधकाने ज्वाला असीम

विकट हुआ प्रशीतन अब

और चुप न रह पाऊंगा

मैं रवि की ज्वाला लेकर

पौरुष की आग धधकाउंगा।

जो बैठे दिल्ली में मूढ़

उदण्ड अति रोटी के चोर

इच्छा पाले नोट वोट की

करते घोर पाप हर ओर

गिद्द नोंचते बोटी बोटी

जनता आज कराहती है

सिंहासन पर बैठे चोरों को

तनिक लाज ना आती है।

जो बैठे है चुप घरों में

उनका भी इम्तहान लिखूंगा

तटस्थ बन्धों को तोड़कर

एक नया संग्राम रचूंगा

समर स्वागत में खड़ा है

लिए आज शोणित की आस

या तो धूसरित कर लो खुद को

या कर दो शत्रू का नाश।

तिल तिल मरना इंसानों की

बलिष्ठ भुजाओं का अपमान

सत्ता के निकृष्ट ह्रदयों को

कर दो आज कम्पायमान

तभी अनल अक्षरों में तुम्हारा

नया इतिहास बनाऊंगा

मैं रवि की ज्वाला से फिर

पौरुष की आग धधकाउंगा।

                                          – विकास कुमार
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कवि – विकास कुमार

यह कविता हमारे कवि मंडली के नवकवि विकास कुमार जी की है । वह वित्त मंत्रालय नार्थ ब्लाक दिल्ली में सहायक अनुभाग अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं । उनकी दैनिंदिनी में कभी कभी  उन्हें लिखने का भी समय मिल जाता है । वैसे तो उनका लेखन किसी वस्तु विशेष के बारे में नहीं रहता मगर न चाहते हुए भी आप उनके लेखन में उनके स्वयं के जीवन अनुभव को महसूस कर सकते हैं । हम आशा करते हैं की आपको उनकी ये कविता पसंद आएगी ।

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