घर लौटने में अब ज़माने निकल जाएँगे  – विकाश कुमार

शहर बदला हम फिर कमाने निकल जाएँगे

घर लौटने में अब ज़माने निकल जाएँगे

अब दफ़्तरों में ही नींद की परियाँ उतरेंगी

खुली आखों से ख़्वाब सुहाने निकल जाएँगे

कुछ चेहरे कुछ यादें, कहीं अनकही बातें

यूँही मोतियों के सारे ख़ज़ाने निकल जाएँगे

चले आएँगे शायद जैसे अब जाना हुआ है

जब याद करने के सारे बहाने निकल जाएँगे

– विकाश कुमार

विकाश कुमार की अन्य रचनाएँ

हिंदी ई-बुक्स (Hindi eBooks)static_728x90

 

16 thoughts on “घर लौटने में अब ज़माने निकल जाएँगे  – विकाश कुमार

Leave a reply to theconfidentguy Cancel reply