शायद मैं कभी समझा नहीं पाउँगा
शायद तुम कभी समझ नहीं पाओगी
लबों की ख़ामोशी और दिल का शोर
आँखों को फेर लेना दूसरी ओर
तूफ़ान अंदर और शब्दों का अभाव
तुम्हारे कटाक्ष की पीड़ घनघोर
शायद मैं कभी समझा नहीं पाउँगा
शायद तुम कभी समझ नहीं पाओगी
समय कुछ और देती तो शायद बात होती
हिम्मत जोड़ कर कल्पना भावों को पिरोती
कुछ न कुछ में, कुछ मैं रोता , कुछ तुम रोती
पर हर बात मन से मन की होती
शायद मैं कभी समझा नहीं पाउँगा
शायद तुम कभी समझ नहीं पाओगी
अब भी बड़ी देर नहीं हुई है लेकिन
सब कुछ भूल एक ही बात हो तो, लेकिन
तुम भी मेरा सुनो मैं भी तुम्हारी सुनु
दोनो दूसरे से दो बात कहें लेकिन
शायद मैं कभी समझा नहीं पाउँगा
शायद तुम कभी समझ नहीं पाओगी
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