तेरी निगाहों ने मुझे तेरी चौखट पर पकड़ा मैंने तेरे इश्क़ से बस बचकर निकलने ही वाला था तूने आकर फिर से मेरे ज़ख़्म हरे कर दिए मेरा वक़्त मेरे ज़ख़्म बस भरने ही वाला था
Author: VIKASH KUMAR
फिर से एक बार मुझे भुला कर देखिए – विकाश कुमार
मोम को आग लगाकर कर देखिए मुझे कभी तो खुद के बराबर देखिए कभी छुप के देखिए मेरे ज़ख्मों को कभी खुद के ज़ख़्म दिखाकर देखिए
दुनिया को जला फ़ना कर दे – विकाश कुमार
दुनिया को जला फ़ना कर दे ईमान को झुकने से मना कर दे मेरे दिल बेशक इश्क़ कर दुनियादारी मगर भूलने से मना कर दे
एक उम्र के बाद रोया नहीं जाता – विकाश कुमार
एक उम्र के बाद रोया नहीं जाता आँख में रहता है अश्क़, ज़ाया नहीं जाता नींद आती थी कभी अब आती नहीं एक उम्र हुयी ख़्वाबों से वो साया नहीं जाता
शायद मैं कभी समझा नहीं पाउँगा – विकाश कुमार
शायद मैं कभी समझा नहीं पाउँगा शायद तुम कभी समझ नहीं पाओगी लबों की ख़ामोशी और दिल का शोर आँखों को फेर लेना दूसरी ओर तूफ़ान अंदर और शब्दों का अभाव तुम्हारे कटाक्ष की पीड़ घनघोर शायद मैं कभी समझा नहीं पाउँगा शायद तुम कभी समझ नहीं पाओगी
मेरे बच्चे अब बड़े हो गए हैं – विकाश कुमार
चादरों पर अब सलवटें नहीं पड़ती कपड़े भी इधर उधर बिखरें नहीं ना नयी फ़रमाहिशे हैं हर दिन रोज़ अब यही कहानी है बच्चों के बिन क्यूँकि मेरे बच्चे अब बड़े हो गए हैं
साँझ हुई परदेस में – विकाश कुमार
साँझ हुई परदेस में दिल देश में डूब गया अब इस भागदौड़ से जी अपना ऊब गया वरदान मिलने की चाह नहीं मेहनत का फ़ल ही मिल जाता किसको को क्या मिला यहाँ हिसाब में वक़्त ख़ूब गया
चलते हैं घड़ी के काँटे – विकाश कुमार
चलते हैं घड़ी के काँटे और काँटों पे चलते हम हर दिन जलने के बाद सूरज से ढलते हम
मेरे घर भी दिवाली है – विकाश कुमार
बना कर दिए मिट्टी के ज़रा सी आस पाली है , ख़रीद लो मेहनत मेरी , मेरे घर भी दिवाली है
आइना टाल देता है – विकाश कुमार
रोज़ पूछता हूँ कौन है... रोज़ आइना टाल देता है इस साल कुछ बदलेंगे... दिल क़रार हर साल देता है