मैं समझ नहीं पाया – शिवम कनोजे

आज मैं किसी से मिला, वो बूढ़ेपन की खीझ थी, या देश पर गुस्सा , मैं समझ नहीं पाया।

उम्मीन्द थी ज़िंदगी से तुम मेरी – शिवम् कनोजे

उम्मीन्द थी ज़िंदगी से तुम मेरी, अब ग़ुरूर हो खुद पर मेरा दर्द था दिल में कुछ मेरे, अब राहत हो दिल की तुम मेरी, दास्तां सुनी थी सच्चे इश्क़ की कुछ, ख़ौफ़नाक थी सारी, सोच बदल दी तुमने मेरी, अब हसीं लगता हैं सब कुछ,

बेनाम रिश्ता – शिवम् कनोजे

यूँ तो वायदे किये थे साथ निभाने के हरदम, उन वायदों ने मुँह फेर लिया, चाहत थी हाथ थामने की उसके , पर उसने हाथ ही यूँ मरोड़ दिया, एक सुकून सा था साथ उसका, आज साथ होना चुभने लगा। कभी दवा थी हर मर्ज़ की वो, आज खुद दर्द बन उभरने लगा।

उसूल-ऐ-ज़िंदगी – शिवम् कनोजे

कुछ ज़िंदगी में अपने होते हैं, तो कुछ ज़िन्दगी के अपने होते हैं, कुछ उसूल समझते है, तो कुछ बे-फ़िज़ूल कहते हैं।

तुम और तुम्हारा शहर – रुचिका मान ‘रूह’

एक अरसे पहले तेरे कूचे से निकले थे हम, अरमानों की उलझी हुई गाँठे लिए, बेवजह चलती हुई साँसों के साथ... और देख तो..एक मुद्दत बाद आज लौटे हैं, वैसा का वैसा ही है सब आज भी यहाँ...

नीम से होकर निबोरी बनाते हैं पिता – विकास कुमार

पिता के महत्व को ना कम आंकिय माँ की हर ख़ुशी को पिता से भी बांटिए माँ यदि ममता है तो पिता पुरूषार्थ है पिता बिन जग में ना कोई परमार्थ है हर अर्थ व्यर्थ है यदि पिता असमर्थ है पिता से ही घर का हर कोना समर्थ है

धधक पौरुष की – विकास कुमार

मैं चला उस ओर जिधर सूर्य की किरणें असीम प्रसुप्त पौरुष की रगों में धधकाने ज्वाला असीम विकट हुआ प्रशीतन अब और चुप न रह पाऊंगा

शून्य – विकास कुमार

रह गए हैं कुछ पीले पत्ते अधूरे ख्वाब बुझी  राख उजड़ा जमाना कातिल अकाल औऱ बिखरे तिनके मेरे भीतर मेरे जहन में बहुत अंदर तक। अब मैं मैं नहीं ना ही वो हरे भरे पत्ते हैं न ही वो संजीले ख्वाब हैं

मेरा देश – विकास-कुमार

यह अमर कथा है भारत की सृष्टी के श्रेष्ठ विचारक की विश्व गुरु का ज्ञान जहां है स्वर्ण चिड़िया का बखान यहां है कल कल गंगा यहां बहती है चल चल कर यह कुछ कहती है मस्तक पर गिरिराज विराजे  सिंधु स्वम पाँव पखारे  उर पर बहती सरिता सुंदर

मैं चुप हूँ – विकास-कुमार

मैं चुप हूँ चुप ही रहूँगा इंतजार करूँगा उस पल का जब आएगा कोई वहशी मेरे द्वारे मेरे लहू के टुकड़े को