बेड़ियाँ पिघल रहीं, प्रचंड नाद हो रहा बंधन विमुक्त हो रहे, निनाद घोर हो रहा। सामाजिक वर्जनाओं पर,रूढ़ियों ढकोसलों पर कुत्सित मान्यताओं पर, प्रबल प्रहार हो रहा।
Category: ज्ञान प्रकाश सिंह
यूनिवर्सिटी ऑफ़ रुड़की से सिविल एंजिनीरिंग में ग्रैजूएशन के उपरांत कुछ समय सी.पी.डब्ल्यू.डी और यू.पी. हाउज़िंग एंड डिवेलप्मेंट बोर्ड में कार्यरत रहे. तदुपरांत उ. प्र. लोक निर्माण विभाग जोईन किया एवं अभियंता अधिकारी के रूप में उत्तर प्रदेश के विभिन्न जनपदों में कार्यरत रहे तथा वहीं से सेवानिवृत हुए । माई चाइल्ड ऋषिमा छोटी बच्ची ऋषिमा की बाल गतिविधियों से सम्बंधित कहानियों एवं कविताओं के रूप में इनकी पहली पुस्तक है । लम्बे अंतराल के पश्चात् बंद पड़ा लेखन पुनः प्रारम्भ किया है ।
वासंती मौसम याद रहा – ज्ञान प्रकाश सिंह
वासंती मौसम याद रहा, पतझड़ का मौसम भूल गए बाग़ों की बहारें याद रहीं, पत्तों का गिरना भूल गए। शहर पुराना लोग नए थे, सतरंगी दुनिया क्या कहिये वह बॉडी लैंग्वेज याद रही, अंदर की केमिस्ट्री भूल गए।
कच्ची उम्र के पक्के साथी – ज्ञान प्रकाश सिंह
वह उम्र भले ही कच्ची थी, पर तब के साथी पक्के थे। वह निश्छलता की दुनिया थी जिससे पटती दिल से पटती वे हमको अच्छे लगते थे, हम उनको अच्छे लगते थे। वह उम्र भले ही कच्ची थी, पर तब के साथी पक्के थे। वह स्वार्थ रहित नाता होता, भोला होता भावुक होता
कविता का फास्ट फूड – ज्ञान प्रकाश सिंह
शीघ्रता की साधना, असिद्ध करती जा रही है, धैर्य की अवधारणा अब लुप्त होती जा रही है। विश्वअंतर्जाल रचना जब से हुई है अवतरित, सूचना तकनीक तब से हो रही है विस्तारित। विश्व होता जा रहा है विश्वव्यापी जाल शासित, संबंधों की दृढ़ता को तय कर रहा है ‘लाइक’। हृदयगत सम्वेदना अब दूर होती जा रही है, धैर्य की अवधारणा अब लुप्त होती जा रही है।
टैन्जेंट – ज्ञान प्रकाश सिंह
समानान्तर रेखाओं से तो तिर्यक रेखायें अच्छी है जो आपस में टकराती हैं लड़ती हैं तथा झगड़ती हैं और कभी टैन्जेंट हुईं तो कोमलता से छूती हैं ।
जब तुम आये – ज्ञान प्रकाश सिंह
धीरे से खोल कपाटों को, नीरवता से जब तुम आये, चमकी हो चपला जैसे, चितवन में विद्युत भर लाये। जब तुम आये, जैसे रचना चित्र कल्पना, जैसे जटिल जाल स्मृति के भाषा के अपठित भावों के, प्रश्न लिए पलकों पर आये। जब तुम आये,
तुषार कणिका – ज्ञान प्रकाश सिंह
नव प्रभात का हुआ आगमन है उपवन अंचल स्तंभित पुष्प लताओं के झुरमुट में छिपकर बैठी हरित पत्र पर बूँद ओस की ज्योतित निर्मल
स्मॅाग – ज्ञान प्रकाश सिंह
ये कैसी धुँध छाई, ये धुआँ कहाँ से आया? मंत्री जी से जब पूछा, ये कैसी धुँध आई बोले, लोकतान्त्रिक है, सब पर है छाई, अमीर और ग़रीब में, फ़र्क नहीं करती इसीलिए तो हमने एनसीआर में बुलाया। ये कैसी धुँध छाई, ये धुआँ कहाँ से आया?
गीत – ज्ञान प्रकाश सिंह
आज सूर्य की अंतिम किरणें , दुर्बल क्षीण मलिन अलसाई , आज नहीं निर्झर के जल में , संध्या रूप निरखने आई ।
हे सागर वासी घन काले ! – ज्ञान प्रकाश सिंह
जब ज्वालाओं के जाल फेंकते,भुवन भास्कर धरती पर तब ग्रीष्मकाल की भरी दुपहरी,आग बरसती धरती पर जीव जंतु बेहाल ताप से , चैन नहीं मिलता घर बाहर ताक रहे सब सूने नभ को मन में आस तुम्हारी पाले।



