बहुत दूर पर
अट्टहास कर
सागर हँसता है।
दशन फेन के,
अधर व्योम के।
ऐसे में सुन्दरी! बेचने तू क्या निकली है,
अस्त-व्यस्त, झेलती हवाओं के झकोर
सुकुमार वक्ष के फूलों पर ?
सरकार!
और कुछ नहीं,
बेचती हूँ समुद्र का पानी।
तेरे तन की श्यामता नील दर्पण-सी है,
श्यामे! तूने शोणित में है क्या मिला लिया ?
सरकार!
और कुछ नहीं,
रक्त में है समुद्र का पानी।
माँ! ये तो खारे आँसू हैं,
ये तुझको मिले कहाँ से?
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी द्वारा अन्य रचनाएँ
-
कृष्ण की चेतावनी
-
परम्परा
-
समर शेष है
-
परिचय
-
दिल्ली
-
झील
-
वातायन
-
समुद्र का पानी
-
ध्वज-वंदना
-
आग की भीख
-
बालिका से वधू
-
जियो जियो अय हिन्दुस्तान
-
कुंजी
-
परदेशी
-
एक पत्र
-
एक विलुप्त कविता
-
आशा का दीपक
-
कलम, आज उनकी जय बोल
-
शक्ति और क्षमा
-
हो कहाँ अग्निधर्मा नवीन ऋषियों
-
गीत-अगीत
-
गाँधी
-
लेन-देन
-
निराशावादी
-
रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद
-
लोहे के मर्द
-
विजयी के सदृश जियो रे
-
पढ़क्कू की सूझ
-
वीर
-
मनुष्यता
-
पर्वतारोही
-
करघा
-
चांद एक दिन
-
भारत
-
भगवान के डाकिए
-
जब आग लगे
-
लोहे के पेड़ हरे होंगे
-
शोक की संतान
-
जनतन्त्र का जन्म
-
राजा वसन्त वर्षा ऋतुओं की रानी
-
मेरे नगपति! मेरे विशाल!
-
सिपाही
-
रोटी और स्वाधीनता
-
अवकाश वाली सभ्यता
-
व्याल-विजय
-
माध्यम
-
कलम या कि तलवार
-
हमारे कृषक
One thought on “समुद्र का पानी – रामधारी सिंह ‘दिनकर’”