मैं भूल जाऊँ तुम्हें अब यही मुनासिब है मगर भुलाना भी चाहूँ तो किस तरह भूलूँ कि तुम तो फिर भी हक़ीक़त हो कोई ख़्वाब नहीं यहाँ तो दिल का ये आलम है क्या कहूँ
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भोर का उठना – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
भोर का उठना है उपकारी। जीवन-तरु जिससे पाता है हरियाली अति प्यारी। पा अनुपम पानिप तन बनता है बल-संचय-कारी। पुलकित, कुसुमित, सुरभित, हो जाती है जन-उर-क्यारी।
वन्दना – द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
हे दीनबन्धु, करुणा-निधान! जगती-तल के चिर-सत्य-प्राण! होरही व्याप्त है कण-कण में तेरी ज्योतिर्लीला महान्॥1॥
दोराहा – जावेद अख़्तर
ये जीवन इक राह नहीं इक दोराहा है पहला रस्ता बहुत सरल है इसमें कोई मोड़ नहीं है ये रस्ता इस दुनिया से बेजोड़ नहीं है इस रस्ते पर मिलते हैं रिश्तों के बंधन
सुशिक्षा-सोपान – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
जी लगा पोथी अपनी पढ़ो। केवल पढ़ो न पोथी ही को, मेरे प्यारे कढ़ो। कभी कुपथ में पाँव न डालो, सुपथ ओर ही बढ़ो। भावों की ऊँची चोटी पर बड़े चाव से चढ़ो। सुमति-खंजरी को मानवता-रुचि-चाम से मढ़ो। बन सोनार सम परम-मनोहर पर-हित गहने गढ़ो।
दीपक – द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
किस लिए निरन्तर जलते रहते हो मेरे दीपक? क्यों यह कठोर व्रत तुमने पाला है प्यारे दीपक?॥1॥ क्या इस जलते रहने में है स्वार्थ तुम्हारा कोई? तुम ही जगमग जलते क्यों जब अखिल सृष्टि है सोई?॥2॥
ए माँ टेरेसा – जावेद अख़्तर
ए माँ टेरेसा मुझको तेरी अज़मत से इनकार नहीं है जाने कितने सूखे लब और वीराँ आँखें जाने कितने थके बदन और ज़ख़्मी रूहें
वो ढल रहा है – जावेद अख़्तर
वो ढल रहा है तो ये भी रंगत बदल रही है ज़मीन सूरज की उँगलियों से फिसल रही है जो मुझको ज़िंदा जला रहे हैं वो बेख़बर हैं कि मेरी ज़ंजीर धीरे-धीरे पिघल रही है
सेवा-2 – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
जो मिठाई में सुधा से है अधिक। खा सके वह रस भरा मेवा नहीं। तो भला जग में जिये तो क्या जिये। की गयी जो जाति की सेवा नहीं।1।
पूसी बिल्ली – द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
पूसी बिल्ली, पूसी बिल्ली कहाँ गई थी? राजधानी देखने मैं दिल्ली गई थी!





