दीपक – द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

किस लिए निरन्तर जलते
रहते हो मेरे दीपक?
क्यों यह कठोर व्रत तुमने
पाला है प्यारे दीपक?॥1॥

क्या इस जलते रहने में
है स्वार्थ तुम्हारा कोई?
तुम ही जगमग जलते क्यों
जब अखिल सृष्टि है सोई?॥2॥

क्या जगती के सोने पर
अपनी धूनी रमते हो?
इस शांत स्तब्ध रजनी में
योगी बन तप करते हो?॥3॥

काली-काली कज्जलसी
जो वस्तु निकलती ऊपर?
क्या तप के बल से उर की
कालिमा भग रही डर कर?॥4॥

मृदु स्नेह भरे उर से तो
तुम ही जग को अपनाते।
अपना प्रिय गात जला कर
तुम ही प्रकाश दिखलाते॥5॥

पर यह कृतघ्न जग तुमको
कैसा बदला देता है।
क्षण में धीमे झांके से
अस्तित्व मिटा देता है॥6॥

तुम हो मिट्टी के पुतले
मानव भी मिट्टी का रे।
पर दोनों के जीवन में
कितना महान् अन्तर रे॥7॥

पर-हित के लिये सदा तुम
तिल-तिल जल-जल मरते हो।
जग को ज्योतित करने में
कब कोर-कसर रखते हो?॥8॥

पर मानव, रे, उसकी वह
प्रज्वलित स्वार्थ की ज्वाला।
जग को नित जला-जला कर
करती उसका मुँह माला॥9॥

प्रातः रवि के आने पर
तुम मन्द-मन्द जलते हो।
अपने से जो तेजस्वी
उसका आदर करते हो?॥10॥

पर मानव, वह अपने से
तेजस्वी का रे वैभव
क्या-कभी देख सकता है
होकर प्रशान्त औ नीरव?॥11॥

दीपक! जलते-जलते क्यों
तुम स्वयं कभी बुझ जाते?
क्या स्नेह-शून्य उर लेकर
जग को मुँह नहीं दिखाते?॥12॥

कितने सुन्दर हैं उर के
ये भाव अपूर्व निराले।
आकृष्ट शलभ इनसे ही
होकर फिरते मतवाले॥13॥

लौ का भी तो उज्ज्वल रुख
है कभी न नीचे झुकता।
जग-हित जलने वालों का
मस्तक ऊँचा ही रहता॥14॥

इस भाँति निरन्तर जलते
रहना ही अमर कहानी।
जलने में ही जीवन की
रह जाती अमिट निशानी॥15॥

– द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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