उम्मीन्द थी ज़िंदगी से तुम मेरी – शिवम् कनोजे

उम्मीन्द थी ज़िंदगी से तुम मेरी, अब ग़ुरूर हो खुद पर मेरा दर्द था दिल में कुछ मेरे, अब राहत हो दिल की तुम मेरी, दास्तां सुनी थी सच्चे इश्क़ की कुछ, ख़ौफ़नाक थी सारी, सोच बदल दी तुमने मेरी, अब हसीं लगता हैं सब कुछ,

जियो जियो अय हिन्दुस्तान – रामधारी सिंह ‘दिनकर’

जाग रहे हम वीर जवान, जियो जियो अय हिन्दुस्तान ! हम प्रभात की नई किरण हैं, हम दिन के आलोक नवल, हम नवीन भारत के सैनिक, धीर,वीर,गंभीर, अचल । हम प्रहरी उँचे हिमाद्रि के, सुरभि स्वर्ग की लेते हैं । हम हैं शान्तिदूत धरणी के, छाँह सभी को देते हैं। वीर-प्रसू माँ की आँखों के हम नवीन उजियाले हैं गंगा, यमुना, हिन्द महासागर के हम रखवाले हैं। तन मन धन तुम पर कुर्बान, जियो जियो अय हिन्दुस्तान !

बेनाम रिश्ता – शिवम् कनोजे

यूँ तो वायदे किये थे साथ निभाने के हरदम, उन वायदों ने मुँह फेर लिया, चाहत थी हाथ थामने की उसके , पर उसने हाथ ही यूँ मरोड़ दिया, एक सुकून सा था साथ उसका, आज साथ होना चुभने लगा। कभी दवा थी हर मर्ज़ की वो, आज खुद दर्द बन उभरने लगा।

उसूल-ऐ-ज़िंदगी – शिवम् कनोजे

कुछ ज़िंदगी में अपने होते हैं, तो कुछ ज़िन्दगी के अपने होते हैं, कुछ उसूल समझते है, तो कुछ बे-फ़िज़ूल कहते हैं।

बालिका से वधू – रामधारी सिंह ‘दिनकर’

माथे में सेंदूर पर छोटी दो बिंदी चमचम-सी,  पपनी पर आँसू की बूँदें  मोती-सी, शबनम-सी।  लदी हुई कलियों में मादक टहनी एक नरम-सी, यौवन की विनती-सी भोली, गुमसुम खड़ी शरम-सी।

आग की भीख – रामधारी सिंह ‘दिनकर’

धुँधली हुईं दिशाएँ, छाने लगा कुहासा,  कुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँ-सा।  कोई मुझे बता दे, क्या आज हो रहा है;  मुँह को छिपा तिमिर में क्यों तेज रो रहा है?  दाता, पुकार मेरी, संदीप्ति को जिला दे,  बुझती हुई शिखा को संजीवनी पिला दे।  प्यारे स्वदेश के हित अंगार माँगता हूँ।  चढ़ती जवानियों का श्रृंगार मांगता हूँ। 

ध्वज-वंदना – रामधारी सिंह ‘दिनकर’

नमो स्वतंत्र भारत की ध्वजा, नमो, नमो! नमो नगाधिराज-शृंग की विहारिणी! नमो अनंत सौख्य-शक्ति-शील-धारिणी! प्रणय-प्रसारिणी, नमो अरिष्ट-वारिणी! नमो मनुष्य की शुभेषणा-प्रचारिणी! नवीन सूर्य की नई प्रभा, नमो, नमो! नमो स्वतंत्र भारत की ध्वजा, नमो, नमो!

समुद्र का पानी – रामधारी सिंह ‘दिनकर’

बहुत दूर पर  अट्टहास कर  सागर हँसता है।  दशन फेन के,  अधर व्योम के।  ऐसे में सुन्दरी! बेचने तू क्या निकली है,  अस्त-व्यस्त, झेलती हवाओं के झकोर सुकुमार वक्ष के फूलों पर ?

वातायन – रामधारी सिंह ‘दिनकर’

मैं झरोखा हूँ।  कि जिसकी टेक लेकर  विश्व की हर चीज बाहर झाँकती है।  पर, नहीं मुझ पर,  झुका है विश्व तो उस जिन्दगी पर  जो मुझे छूकर सरकती जा रही है।

हिन्दी भाषा – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

पड़ने लगती है पियूष की शिर पर धारा। हो जाता है रुचिर ज्योति मय लोचन-तारा। बर बिनोद की लहर हृदय में है लहराती। कुछ बिजली सी दौड़ सब नसों में है जाती। आते ही मुख पर अति सुखद जिसका पावन नामही। इक्कीस कोटि-जन-पूजिता हिन्दी भाषा है वही।1। जिसने जग में जन्म दिया औ पोसा, पाला। जिसने यक यक लहू बूँद में जीवन डाला। उस माता के शुचि मुख से जो भाषा सीखी। उसके उर से लग जिसकी मधुराई चीखी। जिसके तुतला कर कथन से सुधाधार घर में बही। क्या उस भाषा का मोह कुछ हम लोगों को है नहीं।2।