वह कौन बैठा है वहाँ, बंशी बजाता चैन की जल रहा उद्यान विद्या का, लेकिन उसे चिंता नहीं। लाठी चार्ज करवाया, निहत्थी छात्राओं पर तुम उस नीरो की बंशी तोड़ यदि देती तो बेहतर था।
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नारी शक्ति – ज्ञान प्रकाश सिंह
बेड़ियाँ पिघल रहीं, प्रचंड नाद हो रहा बंधन विमुक्त हो रहे, निनाद घोर हो रहा। सामाजिक वर्जनाओं पर,रूढ़ियों ढकोसलों पर कुत्सित मान्यताओं पर, प्रबल प्रहार हो रहा।
वासंती मौसम याद रहा – ज्ञान प्रकाश सिंह
वासंती मौसम याद रहा, पतझड़ का मौसम भूल गए बाग़ों की बहारें याद रहीं, पत्तों का गिरना भूल गए। शहर पुराना लोग नए थे, सतरंगी दुनिया क्या कहिये वह बॉडी लैंग्वेज याद रही, अंदर की केमिस्ट्री भूल गए।
मनुष्यता – रामधारी सिंह ‘दिनकर’
है बहुत बरसी धरित्री पर अमृत की धार; पर नहीं अब तक सुशीतल हो सका संसार| भोग लिप्सा आज भी लहरा रही उद्दाम; बह रही असहाय नर कि भावना निष्काम| लक्ष्य क्या? उद्देश्य क्या? क्या अर्थ?
कच्ची उम्र के पक्के साथी – ज्ञान प्रकाश सिंह
वह उम्र भले ही कच्ची थी, पर तब के साथी पक्के थे। वह निश्छलता की दुनिया थी जिससे पटती दिल से पटती वे हमको अच्छे लगते थे, हम उनको अच्छे लगते थे। वह उम्र भले ही कच्ची थी, पर तब के साथी पक्के थे। वह स्वार्थ रहित नाता होता, भोला होता भावुक होता
वीर – रामधारी सिंह ‘दिनकर’
सच है, विपत्ति जब आती है, कायर को ही दहलाती है, सूरमा नहीं विचलित होते, क्षण एक नहीं धीरज खोते, विघ्नों को गले लगाते हैं, काँटों में राह बनाते हैं।
कविता का फास्ट फूड – ज्ञान प्रकाश सिंह
शीघ्रता की साधना, असिद्ध करती जा रही है, धैर्य की अवधारणा अब लुप्त होती जा रही है। विश्वअंतर्जाल रचना जब से हुई है अवतरित, सूचना तकनीक तब से हो रही है विस्तारित। विश्व होता जा रहा है विश्वव्यापी जाल शासित, संबंधों की दृढ़ता को तय कर रहा है ‘लाइक’। हृदयगत सम्वेदना अब दूर होती जा रही है, धैर्य की अवधारणा अब लुप्त होती जा रही है।
पढ़क्कू की सूझ – रामधारी सिंह ‘दिनकर’
एक पढ़क्कू बड़े तेज थे, तर्कशास्त्र पढ़ते थे, जहाँ न कोई बात, वहाँ भी नए बात गढ़ते थे। एक रोज़ वे पड़े फिक्र में समझ नहीं कुछ न पाए, "बैल घुमता है कोल्हू में कैसे बिना चलाए?"
टैन्जेंट – ज्ञान प्रकाश सिंह
समानान्तर रेखाओं से तो तिर्यक रेखायें अच्छी है जो आपस में टकराती हैं लड़ती हैं तथा झगड़ती हैं और कभी टैन्जेंट हुईं तो कोमलता से छूती हैं ।
विजयी के सदृश जियो रे – रामधारी सिंह ‘दिनकर’
वैराग्य छोड़ बाँहों की विभा संभालो चट्टानों की छाती से दूध निकालो है रुकी जहाँ भी धार शिलाएं तोड़ो पीयूष चन्द्रमाओं का पकड़ निचोड़ो चढ़ तुंग शैल शिखरों पर सोम पियो रे योगियों नहीं विजयी के सदृश जियो रे!


