पिता के महत्व को ना कम आंकिय माँ की हर ख़ुशी को पिता से भी बांटिए माँ यदि ममता है तो पिता पुरूषार्थ है पिता बिन जग में ना कोई परमार्थ है हर अर्थ व्यर्थ है यदि पिता असमर्थ है पिता से ही घर का हर कोना समर्थ है
Category: विकास कुमार
यह कविता हमारे कवि मंडली के नवकवि विकास कुमार जी की है । वह वित्त मंत्रालय नार्थ ब्लाक दिल्ली में सहायक अनुभाग अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं । उनकी दैनिंदिनी में कभी कभी उन्हें लिखने का भी समय मिल जाता है । वैसे तो उनका लेखन किसी वस्तु विशेष के बारे में नहीं रहता मगर न चाहते हुए भी आप उनके लेखन में उनके स्वयं के जीवन अनुभव को महसूस कर सकते हैं । हम आशा करते हैं की आपको उनकी ये कविता पसंद आएगी ।
धधक पौरुष की – विकास कुमार
मैं चला उस ओर जिधर सूर्य की किरणें असीम प्रसुप्त पौरुष की रगों में धधकाने ज्वाला असीम विकट हुआ प्रशीतन अब और चुप न रह पाऊंगा
शून्य – विकास कुमार
रह गए हैं कुछ पीले पत्ते अधूरे ख्वाब बुझी राख उजड़ा जमाना कातिल अकाल औऱ बिखरे तिनके मेरे भीतर मेरे जहन में बहुत अंदर तक। अब मैं मैं नहीं ना ही वो हरे भरे पत्ते हैं न ही वो संजीले ख्वाब हैं
मेरा देश – विकास-कुमार
यह अमर कथा है भारत की सृष्टी के श्रेष्ठ विचारक की विश्व गुरु का ज्ञान जहां है स्वर्ण चिड़िया का बखान यहां है कल कल गंगा यहां बहती है चल चल कर यह कुछ कहती है मस्तक पर गिरिराज विराजे सिंधु स्वम पाँव पखारे उर पर बहती सरिता सुंदर
मैं चुप हूँ – विकास-कुमार
मैं चुप हूँ चुप ही रहूँगा इंतजार करूँगा उस पल का जब आएगा कोई वहशी मेरे द्वारे मेरे लहू के टुकड़े को
बावरी लड़की – विकास कुमार
इन नयनों के जंगल मेँ एक बावरी लड़की रहती है छूकर कोमल होठों को अधरों की प्यास बुझाती है
फितूर – विकास कुमार
प्रश्नों को , दायरे में ही रहने दो, जो कहते हैं हम वही तुम होने दो। पथ्थरों को, पूजती है दुनिया, तो क्या------- इंसान जो पथ्थर हैं पथ्थर ही रहने दो।
अभीप्सा – विकास कुमार
भरी दोपहरी गर्म रेत तपते मरुथल बढ़ती पिपासा मरुधान हैं जिस ओर रे मन चल उस ओर
कविता – विकास कुमार
कल कल करती नदियों में मृदुभाव ह्र्दय के बहते हैं प्रेमकाज मृदु शब्द सुनहरे परमारथ मेँ कहते हैं लेखन का लेख बने ये कभी कभी युगलों की प्यास बुझाते हैं नव आशा संचार लिये ह्रदय का संताप मिटाते हैं
जिंदगी – विकास कुमार
वक्त के पायदानों पर दुपाये खड़ी है जिंदगी रेत के मानिंद हथेली से फिसलती जिंदगी जागकर नहाई धोई और चल पड़ी है जिंदगी उबड़ खाबड़ रास्ते औऱ सड़कों पर दौड़ती जिंदगी









