दो गज – विकास कुमार

कब ये दुनिया पलट जाये कब ये ताज बेताज हो जाये हुकूमत रहती नहीं हमेशा चन्द साँसों की ये दुनिया है मोहताज कुछ ख्वाबों की आबादी बढ़ न सकेगी जमीं पर संसाधनों के पार, हुक्मरानों की पाबंदी है प्रकृती के ख़ज़ानों पर,

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हम बोलते नहीं – विकास कुमार

अब ये किसने कहा हम बोलते नहीं सहाब तुम प्यार तो करो  हम बोलेंगे भी, तोड़ेंगे भी समाज को भी, कौमी एकता को भी और हड्डियों को भी तुम नहीं जानते हमारी भावनाएं

मैं कवी हूँ – विकास कुमार

मैं कवी हूँ मैं तुमको हमेशा ताली बजाने के लिए नहीं कहूंगा, और ना ही मैं तुमको हसाऊंगा । ना ही कविता का काफिया मिलाऊँगा । आज में बस शब्दों को एकता की माला में   पिरोऊंगा , आज जो तुम्हारे कृत्य  हैं उसमें हास्य कहाँ उसमें ताली बजाने की गुंजाइश  कहाँ ,

बजट – विकास कुमार

एक नन्हा मुन्ना बच्चा यही कोई 8-10 साल का फटा हुआ लिबास या यूं कहो पहनने के नाम पर बस चिथड़ा खींचता जा रहा है एक गाड़ी, बिना इंजन की, सही समझे-छकड़ा

अन्धा कौन ? – विकास कुमार

पार्लियामेंट स्ट्रीट का वो मंजर सीने मेँ घोँपता जैसे एक  खंजर, हर एक था जैसे वहाँ बैरिस्टर पर दिलोँ मेँ कहाँ था उनके मानवता का वो फैक्टर , तभी अचानक गुजरी वहाँ से एक वृध्धा, हाथ मेँ था जिसके लकडी का एक डंडा,

उस रात तुम आई थीं प्रिये – विकास कुमार (अतिथि लेखक)

जब घड़ी की टक टक सुनाई दे रही थी घोर तम के शुनशान अंधेरे में जुगनू उस रात के तम से लड़ रहे थे और अपनी जीत का जश्न मना रहे थे उस रात तुम आई थीं प्रिये

तुम मत भूलना उनको – विकास कुमार (अतिथि लेखक)

तुम मत भूलना उनको, वतन पर फक्र था , जिनको मिलाकर धूल में उनको, लगाकर माटी का चंदन,

दुआ करो – विकास कुमार (अतिथि लेखक)

दुआ करो जल सके दिया हो उजाला रोशन हो हर कोना

आग की फसल – विकास कुमार (अतिथि लेखक)

तुम अधूरे मैं अधूरा दिन अधूरे रात अधूरी भावनाएँ जो बह रहीं हैं उठ रहीं तरंग अधूरी

अधूरे से हम – विकास कुमार (अतिथि लेखक)

तुम अधूरे मैं अधूरा दिन अधूरे रात अधूरी भावनाएँ जो बह रहीं हैं उठ रहीं तरंग अधूरी