वर्षा – द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

नभ के नीले आँगन में
घनघोर घटा घिर आयी!
इस मर्त्य-लोक को देने
जीवन-सन्देशा लायी॥1॥

हैं परहित-निरत सदा ये
मेघों की माल सजीली।
इस नीरव, शुष्क जगत् को
करती हैं सरस, रसीली॥2॥

इससे निर्जीव जगत् जब
सुन्दर, नव जीवन पाता।
हरियाली मिस अपना वह
हर्षोल्लास दिखलाता॥3॥

इनका मृदु रोर श्रवण कर
कोकिल मधु-कण बरसाती।
तरु की डाली-डाली पर
कैसी शोभा सरसाती॥5॥

केकी निज नृत्य-दिखता,
करता फिरता रँगरेली।
पक्षी भी चहक-चहक कर
करते रहते अठखेली॥6॥

सर्वत्र अँधेरा छाया
कुछ देता है न दिखायी।
बस यहाँ-वहाँ जुगुनू की
देती कुछ चमक दिखायी॥7॥

पर ये जुगुनू भी कैसे
लगते सुन्दर चमकीले
जगमग करते रहते हैं
जग का ये मार्ग रँगीले॥8॥

सरिता-उर उमड़ पड़ा है
फिर से नव-जीवन पाकर
निज हर्ष प्रदर्शित करता
उपकूलों से टकरा कर॥9॥

मृदु मन्द समीरण सर्-सर्
लेकर फुहार बहता है।
धीरे-धीरे जगती का
अंचल शीतल करता है॥10॥

                   – द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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