चलते हैं घड़ी के काँटे – विकाश कुमार

चलते हैं घड़ी के काँटे
और काँटों पे चलते हम
हर दिन जलने के बाद
सूरज से ढलते हम

बस में ख़ुद के तो अपनी कहानी नहीं
पर अब तक तो बस ऐसा ही रहा है
टलता रहा है ज़िक्र अपना
और फ़सानों से टलते हम

कभी तो मुकम्मल होगी मंज़िल
अन्धेरों की बदली भी छँटेंगीं
रोशनी की ख़्वाहिश लिए
चिराग़ों से जलते हम

– विकाश कुमार

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