ढाल पसीना जिसे बड़े प्यारों से पाला।
जिसके तन में सींच सींच जीवन-रस डाला।
सुअंकुरित अवलोक जिसे फूला न समाया।
पा करके पल्लवित जिसे पुलकित हो आया।
वह पौधा यदि न सुफल फले तो कदापि न कुफल फले।
अवलोक निराशा का बदन नीर न आँखों से ढले।1।
बालक ही है देश-जाति का सच्चा-संबल।
वही जाति-जीवन-तरु का है परम मधुर फल।
छात्रा-रूप में वही रुचिर-रुचि है अपनाता।
युवक-रूप में वही जाति-हित का है पाता।
वह पूत पालने में पला विद्या-सदनों में बना।
उज्ज्वल करता है जाति-मुख कर लोकोत्तार साधना।2।
बालक ही का सहज-भाव-मय मुखड़ा प्यारा।
है सारे जातीय-भाव का परम सहारा।
युवक जनों के शील आत्म-संयम शुचि रुचि पर।
होती हैं जातीय सकल आशाएँ निर्भर।
इनके बनने से जातियाँ बनीं देश फूला फला।
इनके बिगड़े बिगड़ा सभी हुआ न हरि का भी भला।3।
इन बातों को सोच आँख रख इन बातों पर।
पाठालय स्कूल कालिजों में जा जा कर।
जब मैंने निज युवक और बालक अवलोके।
तो जी का दुख-वेग नहीं रुकता था रोके।
नस नस में कितनों की भर वह अविनय मुझको मिला।
जिसको बिलोक कर सुजनता-मुख-सरोज न कभी खिला।4।
विनय करों में सकल सफलता की है ताली।
विनय पुट बिना नहिं रहती मुखड़े की लाली।
विनय कुलिश को भी है कुसुम समान बनाता।
पाहन जैसे उर को भी है वह पिघलाता।
निज कल करतूतें कर विनय होता है वाँ भी सफल।
बन जाती है बुधि-बल-सहित जहाँ वचन-रचना विफल।5।
किन्तु हमारी नई पौधा उससे बिगड़ी है।
उस पर उसकी उचित आँख अब भी न पड़ी है।
वह विनती है उसे आत्म-गौरव का बाधक।
चित की कुछ बलहीन-वृत्तियों का आराधक।
वह निज विचार तज कर नहीं शिष्टाचार निबाहती।
जो कुछ कहता है चित्ता वह वही किया है चाहती।6।
अनुभव वह संसार का तनिक भी नहिं रखती।
तह तक उसकी आँख आज भी नहीं पहुँचती।
पके नहीं कोई विचार, हैं सभी अधूरे।
पढ़ने के दिन हुए नहीं अब तक हैं पूरे।
पर तो भी वह है बड़ों से बात बात में अकड़ती।
पथ चरम-पंथियों का पकड़ है कर से अहि पकड़ती।7।
बहुत-बड़ा-अनुभवी राज-नीतिक-अधिकारी।
जाति-देश का उपकारक सच्चा-हितकारी।
उसकी रुचि-प्रतिकूल बोल कब हुआ न वंचित।
कह कर बातें उचित मान पा सका न किंचित।
वह पीट-पीट कर तालियाँ उसे बनाती है विवश।
या ‘बैठ जाव’ की धवनि उठा हर लेती है विमल यश।8।
उसके इस अविवेक और अविनय के द्वारा।
क्यों न लोप हो जाय देश का गौरव सारा।
कोई उन्नत हृदय क्यों न सौ टुकड़े होवे।
क्यों न जाति अमूल सफलता अपनी खोवे।
रह जाए देश हित के लिए नहीं ठिकाना भी कहीं।
पर उसके कानों पर कभी जूँ तक रेंगेगी नहीं।9।
पिटी तालियों में पड़ देश रसातल जावे।
धूम धाम ‘गो आन’ धाक जातीय नसावे।
‘हिअर हिअर’ रव तले पिसें सारी सुविधाएँ।
आशाओं का लहू अकाल-उमंग बहाएँ।
यह देख देश-हित-रत सुजन क्यों न कलेजा थाम ले।
पर भला उसे क्या पड़ी है जो अनुभव से काम ले।10।
जिनके रज औ बीज से उपज जीवन पाया।
पली गोद में जिनकी सोने की सी काया।
उनकी रुचि भी नहीं स्वरुचि-प्रतिकूल सुहाती।
बरन कभी आवेग-सहित है कुचली जाती।
अभिरुचि-प्रतिकूल विचार भी ठोकर खाते ही रहें।
उनके सनेहमय मृदुल उर क्यों न बुरी ठेंसें सहें।11।
पर उसका अपराध नहीं इसमें है इतना।
हम लोगों का दोष इस विषय में है जितना।
जैसे साँचे में हमने उसको है ढाला।
जैसे ढँग से हमने उसको पोसा पाला।
लीं साँसें जैसी वायु में वह वैसी ही है बनी।
कैसे तप-ऋतु हो सकेगी शरद-समान सुहावनी।12।
आत्मत्याग है कहीं आत्मगौरव से गुरुतर।
निज विचार से उचित विचार बहुत है बढ़कर।
कर निज-चित-अनुकूल न मन गुरुजन का रखना।
सुधा पग तले डाल ईख का रस है चखना।
अनुभवी लोक-हित-निरत की विबुधों की अवमानना।
है विमल जाति-हित-सुरुचि को कुरुचि-कीच में सानना।13।
किन्तु जब नहीं उसने इन बातों को जाना।
यदि जाना तो उसे नहीं जी से सनमाना।
किसी भाँति जब अविनय ने ही आदर पाया।
तब वह कैसे नहीं करेगी निज मन भाया।
यह रोग बहुत कुछ है दबा हो हिन्दू-रुचि से निबल।
पर यदि न आँख अब भी खुली दिन दिन होवेगा सबल।14।
प्रभो! हमारी नई पौधा निजता पहचाने।
अपने कुल मरजाद जाति-गौरव को जाने।
चुन लेने के लिए, विनय-रुचिकर-रस चीखे।
सबका सदा यथोचित आदर करना सीखे।
धारा उसकी धमनियों में पूत जाति-हित की बहे।
पर गुरुजन के अनुराग का रुचिर रंग उस में रहे।15।
– अयोध्या सिंह उपाध्याय “हरीऔध”
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