एक तिनका – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

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मैं घमंडों में भरा ऐंठा हुआ ,
एक दिन जब था मुंडेरे पर खड़ा ।
आ अचानक दूर से उड़ता हुआ ,
एक तिनका आँख में मेरी पड़ा ।

मैं झिझक कर हो उठा, बेचैन सा ,
लाल होकर आँख भी दुखने लगी ।
मूँठ देने , लोग कपड़े की लगे ,
ऐंठ बेचारी दबे पॉंवों भगी ।

जब किसी ढंग से निकल तिनका गया ,
तब ‘ समझ ‘ ने यों मुझे ताने दिए ।
ऐंठता तू किसलिए इतना रहा ,
एक तिनका है बहुत तेरे लिए ।

अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

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