बुतशिकन कोई कहीं से भी ना आने पाये हमने कुछ बुत अभी सीने में सजा रक्खे हैं अपनी यादों में बसा रक्खे हैं दिल पे यह सोच के पथराव करो दीवानो कि जहाँ हमने सनम अपने छिपा रक्खे हैं वहीं गज़नी के खुदा रक्खे हैं
कविता संग्रह
कहते तो हो तुम सब कि बुत-ए-ग़ालिया – मिर्ज़ा ग़ालिब
कहते तो हो तुम सब कि बुत-ए-ग़ालिया-मू आए यक मरतबा घबरा के कहो कोई कि वो आए हूँ कशमकश-ए-नज़ा में हाँ जज़्ब-ए-मोहब्बत कुछ कह न सकूँ पर वो मिरे पूछने को आए
चपला – द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
चपले! क्यों चमक-चमक कर मेघों में छिप जाती हो? क्यों रूप-छटा तुम अपनी दिखला कर भग जाती हो?॥1॥
कायकूं बहार परी – सूरदास
कायकूं बहार परी । मुरलीया ॥ कायकू ब०॥ध्रु०॥ जेलो तेरी ज्यानी पग पछानी । आई बनकी लकरी मुरलिया ॥ कायकु
सच ये है बेकार हमें ग़म होता है – जावेद अख़्तर
सच ये है बेकार हमें ग़म होता है जो चाहा था दुनिया में कम होता है ढलता सूरज फैला जंगल रस्ता गुम हमसे पूछो कैसा आलम होता है
बलि-पन्थी से – माखनलाल चतुर्वेदी
कौन पथ भूले, कि आये ! स्नेह मुझसे दूर रहकर मत व्यर्थ पुकारे शूल-शूल, कह फूल-फूल, सह फूल-फूल। हरि को ही-तल में बन्द किये, केहरि से कह नख हूल-हूल।
बन-कुसुम – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
एक कुसुम कमनीय म्लान हो सूख विखर कर। पड़ा हुआ था धूल भरा अवनीतल ऊपर। उसे देख कर एक सुजन का जी भर आया। वह कातरता सहित वचन यह मुख पर लाया
सुना करो मेरी जाँ – कैफ़ि आज़मी
सुना करो मेरी जाँ इन से उन से अफ़साने सब अजनबी हैं यहाँ कौन किस को पहचाने यहाँ से जल्द गुज़र जाओ क़ाफ़िले वालों हैं मेरी प्यास के फूँके हुए ये वीराने मेरी जुनून-ए-परस्तिश से तंग आ गये लोग सुना है बंद किये जा रहे हैं बुत-ख़ाने
कलकत्ते का जो ज़िक्र किया तूने – मिर्ज़ा ग़ालिब
कलकत्ते का जो ज़िक्र किया तूने हमनशीं इक तीर मेरे सीने में मारा के हाये हाये वो सब्ज़ा ज़ार हाये मुतर्रा के है ग़ज़ब वो नाज़नीं बुतान-ए-ख़ुदआरा के हाये हाये
निर्झर – द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
ओ निर्झर! झर्-झर्-झर्, कल-कल करता बता रहता तू, प्रतिपल क्यों अविरल?॥1॥







