कलकत्ते का जो ज़िक्र किया तूने हमनशीं
इक तीर मेरे सीने में मारा के हाये हाये
वो सब्ज़ा ज़ार हाये मुतर्रा के है ग़ज़ब
वो नाज़नीं बुतान-ए-ख़ुदआरा के हाये हाये
सब्रआज़्मा वो उन की निगाहें के हफ़ नज़र
ताक़तरूबा वो उन का इशारा के हाये हाये
वो मेवा हाये ताज़ा-ए-शीरीं के वाह वाह
वो बादा हाये नाब-ए-गवारा के हाये हाये
मिर्ज़ा ग़ालिब की अन्य प्रसिध रचनाएँ
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यूँ होता तो क्या होता
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दिल ही तो है
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हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
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अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा
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दिया है दिल
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हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी
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आमों की तारीफ़ में
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ये न थी हमारी क़िस्मत
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अज़ मेहर ता-ब-ज़र्रा दिल-ओ-दिल है आइना
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अफ़सोस कि दनदां का किया रिज़क़ फ़लक ने
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‘असद’ हम वो जुनूँ-जौलाँ गदा-ए-बे-सर-ओ-पा हैं
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आ कि मेरी जान को क़रार नहीं है
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आमद-ए-सैलाब-ए-तूफ़न-ए सदाए आब है
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उग रहा है दर-ओ-दीवार से सबज़ा ग़ालिब
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क़यामत है कि सुन लैला का दश्त-ए-क़ैस में आना
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कलकत्ते का जो ज़िक्र किया तूने हमनशीं
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कहते तो हो तुम सब कि बुत-ए-ग़ालिया-मू आए
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कार-गाह-ए-हस्ती में लाला दाग़-सामाँ है
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कोह के हों बार-ए-ख़ातिर गर सदा हो जाइये
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क्या तंग हम सितमज़दगां का जहान है
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ख़ुश हो ऐ बख़्त कि है आज तेरे सर सेहरा
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गर तुझ को है यक़ीन-ए-इजाबत दुआ न माँग
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गरम-ए-फ़रयाद रखा शक्ल-ए-निहाली ने मुझे
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गुलशन में बंदोबस्त ब-रंग-ए-दिगर है आज
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घर में था क्या कि तिरा ग़म उसे ग़ारत करता
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चशम-ए-ख़ूबां ख़ामुशी में भी नवा-परदाज़ है
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जब तक दहान-ए-ज़ख़्म न पैदा करे कोई
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ज़-बस-कि मश्क़-ए-तमाशा जुनूँ-अलामत है
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ज़माना सख़्त कम-आज़ार है ब-जान-ए-असद
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ज़हर-ए-ग़म कर चुका था मेरा काम
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जादा-ए-रह ख़ुर को वक़्त-ए-शाम है तार-ए-शुआ
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ज़िंदगी अपनी जब इस शक्ल से गुज़री ‘ग़ालिब’
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जुनूँ की दस्त-गीरी किस से हो गर हो न उर्यानी
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तपिश से मेरी वक़्फ़-ए-कशमकश हर तार-ए-बिस्तर है
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ता हम को शिकायत की भी बाक़ी न रहे जा
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तुम अपने शिकवे की बातें न खोद खोद के पूछो
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तुम न आए तो क्या सहर न हुई
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तेरे वादे पर जिये हम
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दिल लगा कर लग गया उन को भी तनहा बैठना
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देख कर दर-पर्दा गर्म-ए-दामन-अफ़्शानी मुझे
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न लेवे गर ख़स-ए-जौहर तरावत सबज़-ए-ख़त से
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नफ़स न अंजुमन-ए-आरज़ू से बाहर खींच
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नवेदे-अम्न है बेदादे दोस्त जाँ के लिए
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नश्शा-हा शादाब-ए-रंग ओ साज़-हा मस्त-ए-तरब
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नुक्तह-चीं है ग़म-ए दिल उस को सुनाए न बने
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पीनस में गुज़रते हैं जो कूचे से वह मेरे
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फ़ारिग़ मुझे न जान कि मानिंद-ए-सुब्ह-ओ-मेहर
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फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया
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फिर हुआ वक़्त कि हो बाल कुशा मौजे-शराब
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फुटकर शेर
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ब-नाला हासिल-ए-दिल-बस्तगी फ़राहम कर
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बर्शकाल-ए-गिर्या-ए-आशिक़ है देखा चाहिए
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बाद मरने के मेरे घर से यह सामाँ निकला
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बिजली इक कौंद गयी आँखों के आगे तो क्या
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बीम-ए-रक़ीब से नहीं करते विदा-ए-होश
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मस्ती ब-ज़ौक़-ए-ग़फ़लत-ए-साक़ी हलाक है
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मुँद गईं खोलते ही खोलते आँखें ‘ग़ालिब’
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मुझ को दयार-ए-ग़ैर में मारा वतन से दूर
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ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं
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रफ़्तार-ए-उम्र क़त-ए-रह-ए-इज़्तिराब है
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रहा गर कोई ता क़यामत सलामत
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लब-ए-ईसा की जुम्बिश करती है गहवारा-जम्बानी
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लूँ वाम बख़्त-ए-ख़ुफ़्ता से यक-ख़्वाब-ए-खुश वले
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लो हम मरीज़-ए-इश्क़ के बीमार-दार हैं
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वह शब-ओ-रोज़-ओ-माह-ओ-साल कहां
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वह हर एक बात पर कहना कि यों होता तो क्या होता
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वां उस को हौल-ए-दिल है तो यां मैं हूं शरम-सार
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वुसअत-स-ईए-करम देख कि सर-ता-सर-ए-ख़ाक
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शुमार-ए सुबह मरग़ूब-ए बुत-ए-मुश्किल पसंद आया
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सफ़ा-ए-हैरत-ए-आईना है सामान-ए-ज़ंग आख़िर
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सितम-कश मस्लहत से हूँ कि ख़ूबाँ तुझ पे आशिक़ हैं
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सियाहि जैसे गिर जावे दम-ए-तहरीर काग़ज़ पर
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हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
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हर क़दम दूरी-ए-मंज़िल है नुमायाँ मुझसे
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हरीफ़-ए-मतलब-ए-मुशकिल नहीं फ़ुसून-ए-नियाज़
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हासिल से हाथ धो बैठ ऐ आरज़ू-ख़िरामी
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हुजूम-ए-नाला हैरत आजिज़-ए-अर्ज़-ए-यक-अफ़्ग़ँ है
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हुज़ूर-ए-शाह में अहल-ए-सुख़न की आज़माइश है
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हुश्न-ए-बेपरवा ख़रीदार-ए-मता-ए-जलवा है
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है बज़्म-ए-बुतां में सुख़न आज़ुर्दा लबों से