बन-कुसुम – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

एक कुसुम कमनीय म्लान हो सूख विखर कर। पड़ा हुआ था धूल भरा अवनीतल ऊपर। उसे देख कर एक सुजन का जी भर आया। वह कातरता सहित वचन यह मुख पर लाया।1। अहो कुसुम यह सभी बात में परम निराला। योग्य करों में पड़ा नहीं बन सका न आला। जैसे ही यह बात कथन उसने कर पाई। वैसे ही रुचिकरी-उक्ति यह पड़ी सुनाई।2।

उद्बोधन – 1 – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

सज्जनो! देखिए, निज काम बनाना होगा। जाति-भाषा के लिए योग कमाना होगा।1। सामने आके उमग कर के बड़े बीरों लौं। मान हिन्दी का बढ़ा आन निभाना होगा।2। है कठिन कुछ नहीं कठिनाइयाँ करेंगी क्या। फूँक से हमको बलाओं को उड़ाना होगा।3।

भाषा – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

जातियाँ जिससे बनीं, ऊँची हुई, फूली फलीं। अंक में जिसके बड़े ही गौरवों से हैं पलीं। रत्न हो करके रहीं जो रंग में उसके ढलीं। राज भूलीं, पर न सेवा से कभी जिसकी टलीं। ऐ हमारे बन्धुओ! जातीय भाषा है वही। है सुधा की धार बहु मरु-भूमि में जिससे बही।1।

नादान – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

कर सकेंगे क्या वे नादान। बिन सयानपन होते जो हैं बनते बड़े सयान। कौआ कान ले गया सुन जो नहिं टटोलते कान। वे क्यों सोचें तोड़ तरैया लाना है आसान।1। है नादान सदा नादान। काक सुनाता कभी नहीं है कोकिल की सी तान। बक सब काल रहेगा बक ही वही रहेगी बान। उसको होगी नहीं हंस लौं नीर छीर पहचान।2।

एक काठ का टुकड़ा – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

जलप्रवाह में एक काठ का टुकड़ा बहता जाता था। उसे देख कर बार बार यह मेरे जी में आता था। पाहन लौं किसलिए उसे भी नहीं डुबाती जल-धारा। एक किसलिए प्रतिद्वन्दी है और दूसरा है प्यारा। मैं विचार में डूबा ही था इतने में यह बात सुनी। जो सुउक्ति कुसुमावलि में से गयी रही रुचि साथ चुनी।

महात्मा जी के प्रति – सुमित्रानंदन पंत

निर्वाणोन्मुख आदर्शों के अंतिम दीप शिखोदय!-- जिनकी ज्योति छटा के क्षण से प्लावित आज दिगंचल,--  गत आदर्शों का अभिभव ही मानव आत्मा की जय, अत: पराजय आज तुम्हारी जय से चिर लोकोज्वल!

कृतज्ञता – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

माली की डाली के बिकसे कुसुम बिलोक एक बाला। बोली ऐ मति भोले कुसुमो खल से तुम्हें पड़ा पाला। विकसित होते ही वह नित आ तुम्हें तोड़ ले जाता है। उदर-परायणता वश पामर तनिक दया नहिं लाता है।1।

क्योंकि एक औरत थी वो – शिवम कनोजे

कभी कोख़ में लड़ी थी वो कभी कोख़ से लड़ी थी वो, कभी चंद रुपयों में बिकी थी वो, कभी दहेज़ के नाम पर ख़रीदी गई थी वो, कभी अपने ही घर में बंधी थी वो, तो कभी औरों के घर की बंदी थी वो, कभी औरों ने उसे सिर का ताज बनाया,

आज शर्मसार हूँ – शिवम कनोजे

हाँ, मैं भारतीय हूँ कभी गर्व था इस बात पर, लेकिन आज शर्मिंदा हूँ, हाँ, कभी गर्व करता था, शहादत पर जवानों की, आज बेमतलब हो गयी वो शहादत, औरों से बचाते रहे,इस देश को, पर अपनों ने ही नोंच खाया, आज शर्मसार हूँ, भारतीय होने पर अपने,

मैं समझ नहीं पाया – शिवम कनोजे

आज मैं किसी से मिला, वो बूढ़ेपन की खीझ थी, या देश पर गुस्सा , मैं समझ नहीं पाया।