उग रहा है दर-ओ-दीवार
उग रहा है दर-ओ-दीवार – मिर्ज़ा ग़ालिब
उग रहा है दर-ओ-दीवार
उग रहा है दर-ओ-दीवार
वो कभी धूप कभी छाँव लगे । मुझे क्या-क्या न मेरा गाँव लगे । किसी पीपल के तले जा बैठे अब भी अपना जो कोई दाँव लगे ।
हाँ दिल-ए-दर्दमंद ज़म-ज़मा साज़ क्यूँ न खोले दर-ए-ख़ज़िना-ए-राज़ ख़ामे का सफ़्हे पर रवाँ होना शाख़-ए-गुल का है गुल-फ़िशाँ होना
यही तोहफ़ा है यही नज़राना मैं जो आवारा नज़र लाया हूँ रंग में तेरे मिलाने के लिये क़तरा-ए-ख़ून-ए-जिगर लाया हूँ ऐ गुलाबों के वतन
आमद-ए सैलाब-ए तूफ़ान-ए सदाए आब है नक़श-ए-पा जो कान में रखता है उंगली जादह से बज़्म-ए-मय वहशत-कदा है किस की चश्म-ए-मस्त का शीशे में नब्ज़-ए-परी पिन्हाँ है मौज-ए-बादा से
वक्त ने किया क्या हंसी सितम तुम रहे न तुम, हम रहे न हम ।
आ कि मेरी जान को क़रार नहीं है ताक़ते-बेदादे-इन्तज़ार नहीं है देते हैं जन्नत हयात-ए-दहर के बदले नश्शा बअन्दाज़-ए-ख़ुमार नहीं है
'असद' हम वो जुनूँ-जौलाँ गदा-ए-बे-सर-ओ-पा हैं कि है सर-पंजा-ए-मिज़्गान-ए-आहू पुश्त-ख़ार अपना
शायद मैं कभी समझा नहीं पाउँगा शायद तुम कभी समझ नहीं पाओगी लबों की ख़ामोशी और दिल का शोर आँखों को फेर लेना दूसरी ओर तूफ़ान अंदर और शब्दों का अभाव तुम्हारे कटाक्ष की पीड़ घनघोर शायद मैं कभी समझा नहीं पाउँगा शायद तुम कभी समझ नहीं पाओगी
अफ़सोस कि दनदां का किया रिज़क़ फ़लक ने जिन लोगों की थी दर-ख़ुर-ए-अक़्द-ए-गुहर अंगुश्त काफ़ी है निशानी तिरा छल्ले का न देना ख़ाली मुझे दिखला के ब-वक़्त-ए-सफ़र अंगुश्त लिखता हूं असद सोज़िश-ए दिल से सुख़न-ए गरम ता रख न सके कोई मिरे हरफ़ पर अनगुशत