चादर-सी ओढ़ कर ये छायाएँ
तुम कहाँ चले यात्री, पथ तो है बाएँ।
धूल पड़ गई है पत्तों पर डालों लटकी किरणें
छोटे-छोटे पौधों को चर रहे बाग में हिरणें,
दोनों हाथ बुढ़ापे के थर-थर काँपे सब ओर
किन्तु आँसुओं का होता है कितना पागल ज़ोर-
बढ़ आते हैं, चढ़ आते हैं, गड़े हुए हों जैसे
उनसे बातें कर पाता हूँ कि मैं कुछ जैसे-तैसे।
पर्वत की घाटी के पीछे लुका-छिपी का खेल
खेल रही है वायु शीश पर सारी दनिया झेल।
छोटे-छोटे खरगोशों से उठा-उठा सिर बादल
किसको पल-पल झांक रहे हैं आसमान के पागल?
ये कि पवन पर, पवन कि इन पर, फेंक नज़र की डोरी
खींच रहे हैं किसका मन ये दोनों चोरी-चोरी?
फैल गया है पर्वत-शिखरों तक बसन्त मनमाना,
पत्ती, कली, फूल, डालों में दीख रहा मस्ताना।
काव्यशाला द्वारा प्रकाशित रचनाएँ
-
एक तुम हो
-
लड्डू ले लो
-
दीप से दीप जले
-
मैं अपने से डरती हूँ सखि
-
कैदी और कोकिला
-
कुंज कुटीरे यमुना तीरे
-
गिरि पर चढ़ते, धीरे-धीर
-
सिपाही
-
वायु
-
वरदान या अभिशाप?
-
बलि-पन्थी से
-
जवानी
-
अमर राष्ट्र
-
उपालम्भ
-
मुझे रोने दो
-
तुम मिले
-
बदरिया थम-थमकर झर री !
-
यौवन का पागलपन
-
झूला झूलै री
-
घर मेरा है?
-
तान की मरोर
-
पुष्प की अभिलाषा
-
तुम्हारा चित्र
-
दूबों के दरबार में
-
बसंत मनमाना
-
तुम मन्द चलो
-
जागना अपराध
-
यह किसका मन डोला
-
चलो छिया-छी हो अन्तर में
-
भाई, छेड़ो नही, मुझे
-
उस प्रभात, तू बात न माने
-
ऊषा के सँग, पहिन अरुणिमा
-
मधुर-मधुर कुछ गा दो मालिक
-
आज नयन के बँगले में
-
यह अमर निशानी किसकी है?
-
मचल मत, दूर-दूर, ओ मानी
-
अंजलि के फूल गिरे जाते हैं
-
क्या आकाश उतर आया है
-
कैसी है पहिचान तुम्हारी
-
नयी-नयी कोपलें
-
ये प्रकाश ने फैलाये हैं
-
फुंकरण कर, रे समय के साँप
-
संध्या के बस दो बोल सुहाने लगते हैं
-
जाड़े की साँझ
-
समय के समर्थ अश्व
-
मधुर! बादल, और बादल, और बादल
-
जीवन, यह मौलिक महमानी
-
उठ महान
-
ये वृक्षों में उगे परिन्दे
-
इस तरह ढक्कन लगाया रात ने
-
गाली में गरिमा घोल-घोल
-
प्यारे भारत देश
-
साँस के प्रश्नचिन्हों, लिखी स्वर-कथा
-
वेणु लो, गूँजे धरा
-
गंगा की विदाई
-
किरनों की शाला बन्द हो गई चुप-चुप
-
वर्षा ने आज विदाई ली
-
बोल तो किसके लिए मैं
-
ये अनाज की पूलें तेरे काँधें झूलें