तिमिर तिरोहित हुए तिमिर-हर है दिखलाता।
गत विभावरी हुए विभा बासर है पाता।
टले मलिनता सकल दिशा है अमलिन होती।
भगे तमीचर, नीरवता तमचुर-धवनि खोती।
है वहाँ रुचिरता थीं जहाँ धाराएँ अरुचिर बहीं।
कब परिवर्तन-मय जगत में परिवर्तन होता नहीं।1।
परिवर्तन है प्रकृति नियम का नियमन कारक।
प्रवहमान जीवन प्रवाह का पथ बिस्तारक।
परिवर्तन के समय जो न परिवर्तित होगा।
साथ रहेगा अहित, हित न उसका हित होगा।
यदि शिशिर काल में तरु दुसह दल निपात सहते नहीं।
तो पा नव पल्लव फूल फल समुत्फुल्ल रहते नहीं।2।
किन्तु समय अनुकूल नहिं हुए परिवर्तित हम।
भूल रहे हैं अधमाधम को समझ समुत्ताम।
अति असरल है सरल से सरल गति कहलाती।
सुधा गरल को परम तरल मति है बतलाती।
हैं बिकच कुसुम जो काम के अब न काम के वे रहे।
हैं झोंके तपऋतु पवन के मलय मरुत जाते कहे।3।
जो कुचाल हैं हमें चाव की बात बतातीं।
जो रस्में हैं हमें रसातल को ले जातीं।
जो कुरीति है प्रीति प्रतीति सुनीति निपाती।
जो पध्दति है विपद बीज बो बिपद बुलाती।
छटपटा छटपटा आज भी हम उस से छूटे नहीं।
हैं जिन कुबंधनों में बँधो वे बंधन टूटे नहीं।4।
जीवन के सर्वस्व जाति नयनों के तारे।
भोले भाले भले बहुत से बंधु हमारे।
तज निज पावन अंक अंक में पर के बैठे।
निज दल का कर दलन और के दल में पैठे।
पर खुल खुलकर भी अधखुले लोचन खुल पाये नहीं।
धुल धुलकर भी धब्बे बुरे अब तक धुल पाये नहीं।5।
कहीं लाल हैं ललक ललक कर लूटे जाते।
ललनाओं पर कहीं लोग हैं दाँत लगाते।
कहीं आँख की पुतली पर लगते हैं फेरे।
कहीं कलेजे काढ़ लिये जाते हैं मेरे।
गिरते गिरते इतना गिरे गुरुताएँ सारी गिरीं।
पर फिर फिर के आज भी आँखें हैं न इधर फिरीं।6।
जिस अछूत को छूतछात में पड़ नहिं छूते।
उसके छय हो गये रहेंगे हम न अछूते।
छिति तल से जो छूत हमारा नाम मिटावे।
चाहिए उसकी छाँह भी न हम से छू जावे।
पर छुटकारा अब भी नहीं छूतछात से मिल सका।
छल का प्याला है छलकता छिल न हमारा दिल सका।7।
केवल व्यय से धान कुबेर निर्धन होवेगा।
केवल बरसे बारि-राशि बारिद खोवेगा।
बिना जलागम जल सूखे सूखेगा सागर।
वंशवृध्दि के बिना अवनि होगी बिरहित नर।
वह जाति ध्वंस हो जायगी जो दिन है छीजती।
होगा न जाति का हित बिना बने जाति हित ब्रत ब्रती।8।
हम में परिवर्तन पर हैं परिवर्तन होते।
पर वे हैं जातीय भाव गौरव को खोते।
वह परिवर्तन जो कि जाति का पतनरे।
हुआ नयन गोचर न नयन बहुबार पसारे।
मिल सकी न वह जीवन जड़ी जो सजीव हम को करे।
वह ज्योति नहीं अब तक जगी जो जग मानस तम हरे।9।
मुनिजन वचन महान कल्पतरु से हैं कामद।
उनके विविध विधान हैं फलद मानद ज्ञानद।
वसुधा ममतामयी सुधासी जीवन-दाता।
उनकी परम उदार उक्ति भव शान्ति विधाता।
बहु अशुचि रीति से अरुचि से अरुचिर रुचि से है दलित।
मंदार मंजुमाला नहीं मानी जाती परिमलित।10।
विविध वेदविधि क्या न बहु अविधि के हैं बाधक।
सकल सिध्दि की क्या न साधनाएँ हैं साधक।
क्या जन जन में रमा नहीं है राम हमारा।
क्या विवेक बलबुध्दि का न है हमें सहारा।
क्या पावन मंत्रों में नहीं बहु पावनता है भरी।
क्या भारत में बिलसित नहीं पतितपावनी सुरसरी।11।
यदि है जी में चाह जगत में जीयें जागें।
तो हो जावें सजग शिथिलता जड़ता त्यागें।
मनोमलिनता आतुरता कातरता छोड़ें।
मुँह न एकता समता जन-ममता से मोड़ें।
बहुविघ्न-मेरु-कुल को करें चूर चूर बर-बज्र बन।
हो त्रि-नयन नयन दहन करें सकल अमंगल अतनतन।12।
प्रभो जगत जीवन विधायिनी जाति-हमारी।
हो मर्यादित बचा बचा मर्यादा सारी।
सकल सफलता लहे विफलता मुख न बिलोके।
दिन दिन सब अवलोकनीय सुख को अवलोके।
जब लौं नभतल के अंक में यह भारत भूतल पले।
तब लौं कर कीर्ति कुसुम चयन फबे फैल फूले फले।13।
– अयोध्या सिंह उपाध्याय “हरीऔध”
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