कविता संग्रह

फुलनको महल फुलनकी सज्या – सूरदास

फुलनको महल फुलनकी सज्या फुले कुंजबिहारी । फुली राधा प्यारी ॥ध्रु०॥ फुलेवे दंपती नवल मनन फुले फले करे केली न्यारी ॥१॥

हम तो बचपन में भी अकेले थे – जावेद अख़्तर

हम तो बचपन में भी अकेले थे सिर्फ़ दिल की गली में खेले थे   इक तरफ़ मोर्चे थे पलकों के  इक तरफ़ आँसुओं के रेले थे 

वरदान या अभिशाप? – माखनलाल चतुर्वेदी

कौन पथ भूले, कि आये ! स्नेह मुझसे दूर रहकर कौनसे वरदान पाये? यह किरन-वेला मिलन-वेला बनी अभिशाप होकर, और जागा जग, सुला अस्तित्व अपना पाप होकर

कुसुम चयन – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

जो न बने वे विमल लसे विधु-मौलि मौलि पर। जो न बने रमणीय सज, रमा-रमण कलेवर। बर बृन्दारक बृन्द पूज जो बने न बन्दित। जो न सके अभिनन्दनीय को कर अभिनन्दित। जो विमुग्धा कर हुए वे न बन मंजुल-माला।

सदियाँ गुजर गयीं – कैफ़ि आज़मी

क्या जाने किसी की प्यास बुझाने किधर गयीं उस सर पे झूम के जो घटाएँ गुज़र गयीं दीवाना पूछता है यह लहरों से बार बार कुछ बस्तियाँ यहाँ थीं बताओ किधर गयीँ

क़यामत है कि सुन लैला – मिर्ज़ा ग़ालिब

क़यामत है कि सुन लैला का दश्त-ए-क़ैस में आना  तअज्जुब से वह बोला यूँ भी होता है ज़माने में 

सरिता – द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

सरिते! क्यों अविरल गति से प्रतिपल बहती रहती हो? क्षण-भर के लिए कहीं भी विश्राम क्यों न करती हो?॥1॥

रसिक सीर भो हेरी लगावत – सूरदास

रसिक सीर भो हेरी लगावत गावत राधा राधा नाम ॥ध्रु०॥ कुंजभवन बैठे मनमोहन अली गोहन सोहन सुख तेरोई गुण ग्राम ॥१॥

मुझको यक़ीं है सच कहती थीं – जावेद अख़्तर

मुझको यक़ीं है सच कहती थीं जो भी अम्मी कहती थीं  जब मेरे बचपन के दिन थे चाँद में परियाँ रहती थीं  एक ये दिन जब अपनों ने भी हमसे नाता तोड़ लिया  एक वो दिन जब पेड़ की शाख़ें बोझ हमारा सहती थीं  एक ये दिन जब सारी सड़कें रूठी-रूठी लगती हैं  एक वो दिन जब 'आओ खेलें' सारी गलियाँ कहती थीं 

वायु – माखनलाल चतुर्वेदी

चल पडी चुपचाप सन-सन-सन हवा, डालियों को यों चिढाने-सी लगी, आंख की कलियां, अरी, खोलो जरा, हिल स्वपतियों को जगाने-सी लगी,