द्वाभा के एकाकी प्रेमी, नीरव दिगन्त के शब्द मौन, रवि के जाते, स्थल पर आते कहते तुम तम से चमक--कौन? सन्ध्या के सोने के नभ पर तुम उज्ज्वल हीरक सदृश जड़े, उदयाचल पर दीखते प्रात
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खोलो, मुख से घूँघट खोलो – सुमित्रानंदन पंत
खोलो, मुख से घूँघट खोलो, हे चिर अवगुंठनमयि, बोलो! क्या तुम केवल चिर-अवगुंठन, अथवा भीतर जीवन-कम्पन? कल्पना मात्र मृदु देह-लता, पा ऊर्ध्व ब्रह्म, माया विनता! है स्पृश्य, स्पर्श का नहीं पता, है दृश्य, दृष्टि पर सके बता!
चाहिए – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
राह पर उसको लगाना चाहिए। जाति सोती है जगाना चाहिए।1। हम रहेंगे यों बिगड़ते कब तलक। बात बिगड़ी अब बनाना चाहिए।2। खा चुके हैं आज तक मुँह की न कम। सब दिनों मुँह की न खाना चाहिए।3।
अपने दुखड़े – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
देश को जिस ने जगाया जगे सोने न दिया। आग घर घर में बुरी फूट को बोने न दिया।1। है वही बीर पिया दूध उसी ने माँ का। जाति को जिसने जिगर थाम के रोने न दिया।2। बन गये भोले बहुत, अपनी भलाई भूली। है इसी भूल ने अब तक भला होने न दिया।3।
चाँद की कटोरी – कुमार शान्तनु
इस रात मैं फिर तनहा कटोरी से अधूरे चाँद में अधूरे से अपने सपनो को छोटे छोटे जगमगाते तारों के नीचे अपनी आँखों को खोले देख रहा हूँ उस आधे कटोरी से चाँद से अँधेरे की तरह बिखर रहे अपने सपनो को समेट रहा हूँ
दिल के फफोले -1 – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
जिसे सूझ कर भी नहीं सूझ पाता। नहीं बात बिगड़ी हुई जो बनाता। फिसल कर सँभलना जिसे है न आता। नहीं पाँव उखड़ा हुआ जो जमाता। पड़ेगा सुखों का उसे क्यों न लाला। सदा ही सहेगा न वह क्यों कसाला।
कुछ उलटी सीधी बातें – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
जला सब तेल दीया बुझ गया है अब जलेगा क्या। बना जब पेड़ उकठा काठ तब फूले फलेगा क्या।1। रहा जिसमें न दम जिसके लहू पर पड़ गया पाला। उसे पिटना पछड़ना ठोकरें खाना खलेगा क्या।2। भले ही बेटियाँ बहनें लुटें बरबाद हों बिगड़ें। कलेजा जब कि पत्थर बन गया है तब गलेगा क्या।3।
एक उकताया – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
क्या कहें कुछ कहा नहीं जाता। बिन कहे भी रहा नहीं जाता।1। बे तरह दुख रहा कलेजा है। दर्द अब तो सहा नहीं जाता।2। इन झड़ी बाँधा कर बरस जाते। आँसुओं में बहा नहीं जाता।3।
क्या होगा – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
बहँक कर चाल उलटी चल कहो तो काम क्या होगा। बड़ों का मुँह चिढ़ा करके बता दो नाम क्या होगा।1। बही जी में नहीं जो बेकसों के प्यार की धारा। बता दो तो बदन चिकना व गोरा चाम क्या होगा।2। दुखी बेवों यतीमों की कभी सुधा जो नहीं ली तो। जामा किस काम आवेगी व यह धान धाम क्या होगा।3।
हमें नहीं चाहिए – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
आप रहे कोरा शरीर के बसन रँगावे। घर तज कर के घरबारी से भी बढ़ जावे। इस प्रकार का नहीं चाहिए हम को साधू। मन तो मूँड़ न सके मूँड़ को दौड़ मुड़ावे।1। मन का मोह न हरे, राल धान पर टपकावे। मुक्ति बहाने भूल भूलैयाँ बीच फँसावे। हमें चाहिए गुरू नहीं ऐसा अविवेकी। जो न लोक का रखे न तो परलोक बनावे।2।



