चाँद की कटोरी – कुमार शान्तनु

 

इस रात मैं फिर तनहा
कटोरी से अधूरे चाँद में अधूरे से अपने सपनो को छोटे छोटे जगमगाते तारों के नीचे
अपनी आँखों को खोले
देख रहा हूँ
उस आधे कटोरी से चाँद
से अँधेरे की तरह बिखर रहे अपने सपनो को समेट रहा हूँ
कुछ हाथ लगे अधूरे से अँधेरे से सपनो में जो तारो से जगमगाते,
वो तुम थे, जिसे मैं अपनी बार बार झपकती आँखों से देख रहा हूँ
हाँ मैं अपने अधूरे से अंधेरो में सिमटे सपनो को समेट रहा हूँ
पर अब फिर सुबह होने को है जगमगा रहे थे जो सपने
अब सोने को है
हाँ , मैं तुम्हे अपनी आँखों में जलते धुआं बनके उड़ते देख रहा हूँ
अब हर रात मैं उन अधूरे सपनो को अधूरे अँधेरे में समेट रहा हूँ
जो आधी सी जगमग करती रौशनी है मेरे आसमां में , वो तेरी है मैं ये भी देख रहा हूँ ,
लगता है , मैं तुझ में सिमट के खुद को समेट रहा हूँ।

– कुमार शांतनु / अमीक सरकार

काव्यशाला द्वारा प्रकाशित रचनाएँ

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