बिना सूई की घड़ियाँ – द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

हलके नीले और राख के से रंग में जो रँगी हुई। है नभ की दीवाल, वहाँ पर गोल घड़ी जो टँगी हुई।। अम्माँ देखो तो वह कितनी सुंदर चाँदी-सी उज्ज्वल। लगता जैसे वाच फैक्ट्री से आई हो अभी निकल।। पर अम्माँ यह घड़ी अजब है,

हम हैं सूरज-चाँद-सितारे – द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

हम हैं सूरज-चाँद-सितारे।। हम नन्हे-नन्हे बालक हैं, जैसे नन्हे-नन्हे रजकण। हम नन्हे-नन्हे बालक हैं, जैसे नन्हे-नन्हे जल-कण। लेकिन हम नन्हे रजकण ही, हैं विशाल पर्वत बन जाते। हम नन्हे जलकण ही,

हम सब सुमन एक उपवन के – द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

हम सब सुमन एक उपवन के एक हमारी धरती सबकी जिसकी मिट्टी में जन्मे हम मिली एक ही धूप हमें है सींचे गए एक जल से हम। पले हुए हैं झूल-झूल कर पलनों में हम एक पवन के हम सब सुमन एक उपवन के।।

चंदा मामा, आ जाना – द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

चंदा मामा, आ जाना, साथ मुझे कल ले जाना। कल से मेरी छुट्टी है ना आये तो कुट्टी है। चंदा मामा खाते लड्डू, आसमान की थाली में। लेकिन वे पीते हैं पानी आकर मेरी प्याली में।

कोयल – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

काली-काली कू-कू करती, जो है डाली-डाली फिरती!        कुछ अपनी हीं धुन में ऐंठी         छिपी हरे पत्तों में बैठी जो पंचम सुर में गाती है वह हीं कोयल कहलाती है.         जब जाड़ा कम हो जाता है          सूरज थोड़ा गरमाता है 

मीठी बोली – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

बस में जिससे हो जाते हैं प्राणी सारे। जन जिससे बन जाते हैं आँखों के तारे। पत्थर को पिघलाकर मोम बनानेवाली मुख खोलो तो मीठी बोली बोलो प्यारे।। रगड़ो, झगड़ो का कडुवापन खोनेवाली। जी में लगी हुई काई को धानेवाली। सदा जोड़ देनेवाली जो टूटा नाता मीठी बोली प्यार बीज है बोनेवाली।। काँटों में भी सुंदर फूल खिलानेवाली।

आ री नींद – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

आ री नींद, लाल को आ जा। उसको करके प्यार सुला जा।। तुझे लाल हैं ललक बुलाते। अपनी आँखों पर बिठलाते।। तेरे लिए बिछाई पलकें। बढ़ती ही जाती हैं ललकें।। क्यों तू है इतनी इठलाती। आ-आ मैं हूँ तुझे बुलाती।। गोद नींद की है अति प्यारी। फूलों से है सजी-सँवारी।।

गीत –  ज्ञान प्रकाश सिंह

आज सूर्य की अंतिम किरणें , दुर्बल क्षीण मलिन अलसाई , आज नहीं निर्झर के जल में , संध्या रूप निरखने आई ।

हे सागर वासी घन काले ! –  ज्ञान प्रकाश सिंह

जब ज्वालाओं के जाल फेंकते,भुवन भास्कर धरती पर तब ग्रीष्मकाल की भरी दुपहरी,आग बरसती धरती पर जीव जंतु बेहाल ताप से , चैन नहीं मिलता घर बाहर ताक रहे सब सूने नभ को मन में आस तुम्हारी पाले।

मधुकर ! तब तुम गुंजन करना –  ज्ञान प्रकाश सिंह

भँवरा ! ये दिन कठिन हैं  पर फिर वसंत ऋतु आएगी, नवकुसुम खिलेंगे उपवन में, नवगीत कोकिला गाएगी।