टूटा हुआ इंसान – हरिवंशराय बच्चन

और उसकी चेतना जब जगी मौजों के थपेड़े लग रहे थे, आर-पार-विहीन पारावार में वह आ पड़ा था, किंतु वह दिल का कड़ा था। फाड़ कर जबड़े हड़पने को तरंगो पर तरंगे उठ रही थीं, फेन मुख पर मार कर अंधा बनातीं,

बालिका से वधू – रामधारी सिंह ‘दिनकर’

माथे में सेंदूर पर छोटी दो बिंदी चमचम-सी,  पपनी पर आँसू की बूँदें  मोती-सी, शबनम-सी।  लदी हुई कलियों में मादक टहनी एक नरम-सी, यौवन की विनती-सी भोली, गुमसुम खड़ी शरम-सी।

नंद दुवारे एक जोगी आयो – सूरदास

नंद दुवारे एक जोगी आयो शिंगी नाद बजायो । सीश जटा शशि वदन सोहाये अरुण नयन छबि छायो ॥ नंद ॥ध्रु०॥ रोवत खिजत कृष्ण सावरो रहत नही हुलरायो । लीयो उठाय गोद नंदरानी द्वारे जाय दिखायो ॥नंद०॥१॥

राधे कृष्ण कहो मेरे प्यारे – सूरदास

राधे कृष्ण कहो मेरे प्यारे भजो मेरे प्यारे जपो मेरे प्यारे ॥ध्रु०॥ भजो गोविंद गोपाळ राधे कृष्ण कहो मेरे ॥ प्यारे०॥१॥

आग की भीख – रामधारी सिंह ‘दिनकर’

धुँधली हुईं दिशाएँ, छाने लगा कुहासा,  कुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँ-सा।  कोई मुझे बता दे, क्या आज हो रहा है;  मुँह को छिपा तिमिर में क्यों तेज रो रहा है?  दाता, पुकार मेरी, संदीप्ति को जिला दे,  बुझती हुई शिखा को संजीवनी पिला दे।  प्यारे स्वदेश के हित अंगार माँगता हूँ।  चढ़ती जवानियों का श्रृंगार मांगता हूँ। 

श्री राधा मोहन जी को रूप निहारो – सूरदास

श्रीराधा मोहनजीको रूप निहारो ॥ध्रु०॥ छोटे भैया कृष्ण बडे बलदाऊं चंद्रवंश उजिआरो ॥श्री०॥१॥ मोर मुगुट मकराकृत कुंडल पितांबर पट बारो ॥श्री०॥२॥ हलधर गीरधर मदन मनोहर जशोमति नंद दुलारी ॥श्री०॥३॥

ध्वज-वंदना – रामधारी सिंह ‘दिनकर’

नमो स्वतंत्र भारत की ध्वजा, नमो, नमो! नमो नगाधिराज-शृंग की विहारिणी! नमो अनंत सौख्य-शक्ति-शील-धारिणी! प्रणय-प्रसारिणी, नमो अरिष्ट-वारिणी! नमो मनुष्य की शुभेषणा-प्रचारिणी! नवीन सूर्य की नई प्रभा, नमो, नमो! नमो स्वतंत्र भारत की ध्वजा, नमो, नमो!

देखे मैं छबी आज अति बिचित्र हरिकी – सूरदास

देखे मैं छबी आज अति बिचित्र हरिकी ॥ध्रु०॥ आरुण चरण कुलिशकंज । चंदनसो करत रंग।

समुद्र का पानी – रामधारी सिंह ‘दिनकर’

बहुत दूर पर  अट्टहास कर  सागर हँसता है।  दशन फेन के,  अधर व्योम के।  ऐसे में सुन्दरी! बेचने तू क्या निकली है,  अस्त-व्यस्त, झेलती हवाओं के झकोर सुकुमार वक्ष के फूलों पर ?

वातायन – रामधारी सिंह ‘दिनकर’

मैं झरोखा हूँ।  कि जिसकी टेक लेकर  विश्व की हर चीज बाहर झाँकती है।  पर, नहीं मुझ पर,  झुका है विश्व तो उस जिन्दगी पर  जो मुझे छूकर सरकती जा रही है।