हो गई मौन बुलबुले-हिंद! मधुबन की सहसा रुकी साँस, सब तरुवर-शाखाएँ उदास, अपने अंतर का स्वर खोकर बैठे हैं सब अलि विहग-वृंद! चुप हुई आज बुलबुले-हिन्द!
Author: हरिवंशराय बच्चन
टूटा हुआ इंसान – हरिवंशराय बच्चन
और उसकी चेतना जब जगी मौजों के थपेड़े लग रहे थे, आर-पार-विहीन पारावार में वह आ पड़ा था, किंतु वह दिल का कड़ा था। फाड़ कर जबड़े हड़पने को तरंगो पर तरंगे उठ रही थीं, फेन मुख पर मार कर अंधा बनातीं,
जीवन का दिन – हरिवंशराय बच्चन
जीवन का दिन बीत चुका था, छाई थी जीवन की रात, किंतु नहीं मैंने छोड़ी थी आशा-होगा पुनः प्रभात। काल न ठंडी कर पाया था, मेरे वक्षस्थल की आग, तोम तिमिर के प्रति विद्रोही बन उठता हर एक चिराग़।
भारत मां की जय बोलो – हरिवंशराय बच्चन
एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो। इन जंजीरों की चर्चा में कितनों ने निज हाथ बँधाए, कितनों ने इनको छूने के कारण कारागार बसाए, इन्हें पकड़ने में कितनों ने लाठी खाई, कोड़े ओड़े, और इन्हें झटके देने में कितनों ने निज प्राण गँवाए! किंतु शहीदों की आहों से शापित लोहा, कच्चा धागा। एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो।
एक नया अनुभव – हरिवंशराय बच्चन
कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था भावना के हाथ ने जिसमें वितानों को तना था। स्वप्न ने अपने करों से था जिसे रुचि से सँवारा स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर, कंकड़ों को एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है।
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है – हरिवंशराय बच्चन
कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था भावना के हाथ ने जिसमें वितानों को तना था। स्वप्न ने अपने करों से था जिसे रुचि से सँवारा स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर, कंकड़ों को एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है।
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी? – हरिवंशराय बच्चन
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी? क्या करूँ? मैं दुखी जब-जब हुआ संवेदना तुमने दिखाई, मैं कृतज्ञ हुआ हमेशा, रीति दोनो ने निभाई, किन्तु इस आभार का अब हो उठा है बोझ भारी; क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी? क्या करूँ?
साथी सो न कर कुछ बात – हरिवंशराय बच्चन
साथी सो न कर कुछ बात। पूर्ण कर दे वह कहानी, जो शुरू की थी सुनानी, आदि जिसका हर निशा में, अन्त चिर अज्ञात साथी सो न कर कुछ बात।
तब रोक न पाया मैं आंसू – हरिवंशराय बच्चन
जिसके पीछे पागल होकर मैं दौडा अपने जीवन-भर, जब मृगजल में परिवर्तित हो मुझ पर मेरा अरमान हंसा! तब रोक न पाया मैं आंसू! जिसमें अपने प्राणों को भर कर देना चाहा अजर-अमर, जब विस्मृति के पीछे छिपकर मुझ पर वह मेरा गान हंसा! तब रोक न पाया मैं आंसू!
तुम गा दो, मेरा गान अमर हो जाए – हरिवंशराय बच्चन
तुम गा दो, मेरा गान अमर हो जाए! मेरे वर्ण-वर्ण विश्रंखल, चरण-चरण भरमाए, गूंज-गूंज कर मिटने वाले मैनें गीत बनाये;