मेरे बच्चे अब बड़े हो गए हैं – विकाश कुमार

चादरों पर अब सलवटें नहीं पड़ती
कपड़े भी इधर उधर बिखरें नहीं
ना नयी फ़रमाहिशे हैं हर दिन
रोज़ अब यही कहानी है बच्चों के बिन
क्यूँकि मेरे बच्चे अब बड़े हो गए हैं

अब अख़बार पे कोई हक़ नहीं जताता
हमें कोई हमारी उम्र याद नहीं दिलाता
बेजान हर कमरा है हर दिन
रोज़ अब यही कहानी है बच्चों के बिन
क्यूँकि मेरे बच्चे अब बड़े हो गए हैं

बचपन अब तस्वीरों में सिमटा है
बड़े दिनो से सीने कोई नहीं लिपटा है
घोड़ा बने अब हुए बड़े दिन
रोज़ अब यही कहानी है बच्चों के बिन
क्यूँकि मेरे बच्चे अब बड़े हो गए हैं

चिड़िया नहीं उड़ती अब खाना खिलाने में
गालों पर दुलार नहीं मिलता किसी बहाने में
अब खिलोने पर ख़र्च नहीं किसी दिन
रोज़ अब यही कहानी है बच्चों के बिन
क्यूँकि मेरे बच्चे अब बड़े हो गए हैं

जब तक समझा तब तक स्वर्ण काल निकल गया
बच्चों का बचपन क़तरा क़तरा कहाँ पिघल गया
कान अब तरसते हैं तोतली बोली के बिन
रोज़ अब यही कहानी है बच्चों के बिन
क्यूँकि मेरे बच्चे अब बड़े हो गए हैं

पल का हँसना, पल का रोना
लोरी सुनते सुनते सीने पर सोना
अब दिन नहीं कटता दिन गिन गिन
रोज़ अब यही कहानी है बच्चों के बिन
क्यूँकि मेरे बच्चे अब बड़े हो गए हैं

– विकाश कुमार

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