बदरिया थम-थनकर झर री ! सागर पर मत भरे अभागन गागर को भर री ! बदरिया थम-थमकर झर री ! एक-एक, दो-दो बूँदों में बंधा सिन्धु का मेला, सहस-सहस बन विहंस उठा है
कविता संग्रह
तुम मिले – माखनलाल चतुर्वेदी
तुम मिले, प्राण में रागिनी छा गई! भूलती-सी जवानी नई हो उठी, भूलती-सी कहानी नई हो उठी, जिस दिवस प्राण में नेह बंसी बजी, बालपन की रवानी नई हो उठी। किन्तु रसहीन सारे बरस रसभरे हो गए जब तुम्हारी छटा भा गई। तुम मिले, प्राण में रागिनी छा गई।
मुझे रोने दो – माखनलाल चतुर्वेदी
भाई, छेड़ो नहीं, मुझे खुलकर रोने दो। यह पत्थर का हृदय आँसुओं से धोने दो। रहो प्रेम से तुम्हीं मौज से मजुं महल में, मुझे दुखों की इसी झोपड़ी में सोने दो।
उपालम्भ – माखनलाल चतुर्वेदी
क्यों मुझे तुम खींच लाये? एक गो-पद था, भला था, कब किसी के काम का था? क्षुद्ध तरलाई गरीबिन अरे कहाँ उलीच लाये?
नादान – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
कर सकेंगे क्या वे नादान। बिन सयानपन होते जो हैं बनते बड़े सयान। कौआ कान ले गया सुन जो नहिं टटोलते कान। वे क्यों सोचें तोड़ तरैया लाना है आसान।1। है नादान सदा नादान। काक सुनाता कभी नहीं है कोकिल की सी तान। बक सब काल रहेगा बक ही वही रहेगी बान। उसको होगी नहीं हंस लौं नीर छीर पहचान।2।
एक काठ का टुकड़ा – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
जलप्रवाह में एक काठ का टुकड़ा बहता जाता था। उसे देख कर बार बार यह मेरे जी में आता था। पाहन लौं किसलिए उसे भी नहीं डुबाती जल-धारा। एक किसलिए प्रतिद्वन्दी है और दूसरा है प्यारा। मैं विचार में डूबा ही था इतने में यह बात सुनी। जो सुउक्ति कुसुमावलि में से गयी रही रुचि साथ चुनी।
अमर राष्ट्र – माखनलाल चतुर्वेदी
छोड़ चले, ले तेरी कुटिया, यह लुटिया-डोरी ले अपनी, फिर वह पापड़ नहीं बेलने; फिर वह माल पडे न जपनी। यह जागृति तेरी तू ले-ले, मुझको मेरा दे-दे सपना, तेरे शीतल सिंहासन से सुखकर सौ युग ज्वाला तपना।
एक उम्र के बाद रोया नहीं जाता – विकाश कुमार
एक उम्र के बाद रोया नहीं जाता आँख में रहता है अश्क़, ज़ाया नहीं जाता नींद आती थी कभी अब आती नहीं एक उम्र हुयी ख़्वाबों से वो साया नहीं जाता
जवानी – माखनलाल चतुर्वेदी
प्राण अन्तर में लिये, पागल जवानी ! कौन कहता है कि तू विधवा हुई, खो आज पानी?
कृतज्ञता – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
माली की डाली के बिकसे कुसुम बिलोक एक बाला। बोली ऐ मति भोले कुसुमो खल से तुम्हें पड़ा पाला। विकसित होते ही वह नित आ तुम्हें तोड़ ले जाता है। उदर-परायणता वश पामर तनिक दया नहिं लाता है



