आज नयन के बँगले में संकेत पाहुने आये री सखि! जी से उठे कसक पर बैठे और बेसुधी- के बन घूमें युगल-पलक ले चितवन मीठी, पथ-पद-चिह्न चूम, पथ भूले! दीठ डोरियों पर माधव को
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बीती विभावरी जाग री – जयशंकर प्रसाद
बीती विभावरी जाग री! अम्बर पनघट में डुबो रही तारा-घट ऊषा नागरी!
मधुर-मधुर कुछ गा दो मालिक – माखनलाल चतुर्वेदी
मधुर-मधुर कुछ गा दो मालिक! प्रलय-प्रणय की मधु-सीमा में जी का विश्व बसा दो मालिक!
आह! वेदना मिली विदाई – जयशंकर प्रसाद
आह! वेदना मिली विदाई मैंने भ्रमवश जीवन संचित, मधुकरियों की भीख लुटाई छलछल थे संध्या के श्रमकण आँसू-से गिरते थे प्रतिक्षण मेरी यात्रा पर लेती थी नीरवता अनंत अँगड़ाई
ऊषा के सँग, पहिन अरुणिमा – माखनलाल चतुर्वेदी
ऊषा के सँग, पहिन अरुणिमा मेरी सुरत बावली बोली- उतर न सके प्राण सपनों से, मुझे एक सपने में ले ले। मेरा कौन कसाला झेले?
चित्राधार – जयशंकर प्रसाद
पुन्य औ पाप न जान्यो जात। सब तेरे ही काज करत है और न उन्हे सिरात ॥ सखा होय सुभ सीख देत कोउ काहू को मन लाय। सो तुमरोही काज सँवारत ताकों बड़ो बनाय॥ भारत सिंह शिकारी बन-बन मृगया को आमोद। सरल जीव की रक्षा तिनसे होत तिहारे गोद॥ स्वारथ औ परमारथ सबही तेरी स्वारथ मीत। तब इतनी टेढी भृकुटी क्यों? देहु चरण में प्रीत॥
उस प्रभात, तू बात न माने – माखनलाल चतुर्वेदी
उस प्रभात, तू बात न माने, तोड़ कुन्द कलियाँ ले आई, फिर उनकी पंखड़ियाँ तोड़ीं पर न वहाँ तेरी छवि पाई,
भाई, छेड़ो नहीं, मुझे – माखनलाल चतुर्वेदी
भाई, छेड़ो नहीं, मुझे खुलकर रोने दो यह पत्थर का हृदय आँसुओं से धोने दो, रहो प्रेम से तुम्हीं मौज से मंजु महल में, मुझे दुखों की इसी झोपड़ी में सोने दो।
चलो छिया-छी हो अन्तर में – माखनलाल चतुर्वेदी
चलो छिया-छी हो अन्तर में! तुम चन्दा मैं रात सुहागन चमक-चमक उट्ठें आँगन में चलो छिया-छी हो अन्तर में!
वक्तव्य – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
मति मान-सरोवर मंजुल मराल। संभावित समुदाय सभासद वृन्द। भाव कमनीय कंज परम प्रेमिक। नव नव रस लुब्धा भावुक मिलिन्द।1। कृपा कर कहें बर बदनारबिन्द। अनिन्दित छवि धाम नव कलेवर। बासंतिक लता तरु विकच कुसुम। कलित ललित कुंज कल कण्ठ स्वर।2।



