दिवस का अवसान समीप था गगन था कुछ लोहित हो चला तरू–शिखा पर थी अब राजती कमलिनी–कुल–वल्लभ की प्रभा विपिन बीच विहंगम–वृंद का कल–निनाद विवधिर्त था हुआ ध्वनिमयी–विविधा–विहगावली उड़ रही नभ मण्डल मध्य थी
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बादल – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
सखी ! बादल थे नभ में छाये बदला था रंग समय का थी प्रकृति भरी करूणा में कर उपचय मेघ निश्चय का।। वे विविध रूप धारण कर नभ–तल में घूम रहे थे गिरि के ऊँचे शिखरों को गौरव से चूम रहे थे।।
कर्मवीर – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
देख कर बाधा विविध, बहु विघ्न घबराते नहीं रह भरोसे भाग्य के दुख भोग पछताते नहीं काम कितना ही कठिन हो किन्तु उकताते नहीं भीड़ में चंचल बने जो वीर दिखलाते नहीं हो गये एक आन में उनके बुरे दिन भी भले सब जगह सब काल में वे ही मिले फूले फले ।
मैं चुप हूँ – विकास-कुमार
मैं चुप हूँ चुप ही रहूँगा इंतजार करूँगा उस पल का जब आएगा कोई वहशी मेरे द्वारे मेरे लहू के टुकड़े को
बावरी लड़की – विकास कुमार
इन नयनों के जंगल मेँ एक बावरी लड़की रहती है छूकर कोमल होठों को अधरों की प्यास बुझाती है
फूल – महादेवी वर्मा
मधुरिमा के, मधु के अवतार सुधा से, सुषमा से, छविमान, आंसुओं में सहमे अभिराम तारकों से हे मूक अजान! सीख कर मुस्काने की बान कहां आऎ हो कोमल प्राण! स्निग्ध रजनी से लेकर हास रूप से भर कर सारे अंग, नये पल्लव का घूंघट डाल अछूता ले अपना मकरंद, ढूढं पाया कैसे यह देश? स्वर्ग के हे मोहक संदेश!
अधिकार – महादेवी वर्मा
वे मुस्काते फूल, नहीं जिनको आता है मुर्झाना, वे तारों के दीप, नहीं जिनको भाता है बुझ जाना; वे नीलम के मेघ, नहीं जिनको है घुल जाने की चाह वह अनन्त रितुराज,नहीं जिसने देखी जाने की राह|
सजनि कौन तम में परिचित सा – महादेवी वर्मा
सजनि कौन तम में परिचित सा, सुधि सा, छाया सा, आता? सूने में सस्मित चितवन से जीवन-दीप जला जाता! छू स्मृतियों के बाल जगाता, मूक वेदनायें दुलराता, हृततंत्री में स्वर भर जाता, बंद दृगों में, चूम सजल सपनों के चित्र बना जाता!
दीपक अब रजनी जाती रे – महादेवी वर्मा
जिनके पाषाणी शापों के तूने जल जल बंध गलाए रंगों की मूठें तारों के खील वारती आज दिशाएँ तेरी खोई साँस विभा बन भू से नभ तक लहराती रे दीपक अब रजनी जाती रे
क्या पूजन क्या अर्चन रे! – महादेवी वर्मा
उस असीम का सुंदर मंदिर मेरा लघुतम जीवन रे! मेरी श्वासें करती रहतीं नित प्रिय का अभिनंदन रे! पद रज को धोने उमड़े आते लोचन में जल कण रे! अक्षत पुलकित रोम मधुर मेरी पीड़ा का चंदन रे! स्नेह भरा जलता है झिलमिल मेरा यह दीपक मन रे! मेरे दृग के तारक में नव उत्पल का उन्मीलन रे! धूप बने उड़ते जाते हैं प्रतिपल मेरे स्पंदन रे! प्रिय प्रिय जपते अधर ताल देता पलकों का नर्तन रे!



