कौन सिखाता है – द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

कौन सिखाता है चिड़ियों को चीं-चीं, चीं-चीं करना?  कौन सिखाता फुदक-फुदक कर उनको चलना फिरना? कौन सिखाता फुर्र से उड़ना दाने चुग-चुग खाना? कौन सिखाता तिनके ला-ला कर घोंसले बनाना? कौन सिखाता है बच्चों का लालन-पालन उनको? माँ का प्यार, दुलार, चौकसी कौन सिखाता उनको?

मूल मंत्र – द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

केवल मन के चाहे से ही मनचाही होती नहीं किसी की। बिना चले कब कहाँ हुई है मंज़िल पूरी यहाँ किसी की।। पर्वत की चोटी छूने को पर्वत पर चढ़ना पड़ता है। सागर से मोती लाने को गोता खाना ही पड़ता है।।

इतने ऊँचे उठो – द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

इतने ऊँचे उठो कि जितना उठा गगन है। देखो इस सारी दुनिया को एक दृष्टि से सिंचित करो धरा, समता की भाव वृष्टि से जाति भेद की, धर्म-वेश की काले गोरे रंग-द्वेष की ज्वालाओं से जलते जग में इतने शीतल बहो कि जितना मलय पवन है॥

तुम और तुम्हारा शहर – रुचिका मान ‘रूह’

एक अरसे पहले तेरे कूचे से निकले थे हम, अरमानों की उलझी हुई गाँठे लिए, बेवजह चलती हुई साँसों के साथ... और देख तो..एक मुद्दत बाद आज लौटे हैं, वैसा का वैसा ही है सब आज भी यहाँ...

आओ प्यारे तारो आओ – महादेवी वर्मा

आओ, प्यारे तारो आओ तुम्हें झुलाऊँगी झूले में, तुम्हें सुलाऊँगी फूलों में, तुम जुगनू से उड़कर आओ, मेरे आँगन को चमकाओ।

चंचल पग दीप-शिखा- सुमित्रानंदन पंत

चंचल पग दीप-शिखा-से धर गृह,मग, वन में आया वसन्त! सुलगा फाल्गुन का सूनापन सौन्दर्य-शिखाओं में अनन्त! सौरभ की शीतल ज्वाला से फैला उर-उर में मधुर दाह आया वसन्त, भर पृथ्वी पर स्वर्गिक सुन्दरता का प्रवाह!

संध्‍या के बाद – सुमित्रानंदन पंत

सिमटा पंख साँझ की लाली जा बैठी तरू अब शिखरों पर ताम्रपर्ण पीपल से, शतमुख झरते चंचल स्‍वर्णिम निझर! ज्‍योति स्‍थंभ-सा धँस सरिता में सूर्य क्षितीज पर होता ओझल बृहद जिह्म ओझल केंचुल-सा लगता चितकबरा गंगाजल! धूपछाँह के रंग की रेती अनिल ऊर्मियों से सर्पांकित नील लहरियों में लोरित

बापू के प्रति – सुमित्रानंदन पंत

तुम मांस-हीन, तुम रक्तहीन, हे अस्थि-शेष! तुम अस्थिहीन, तुम शुद्ध-बुद्ध आत्मा केवल, हे चिर पुराण, हे चिर नवीन! तुम पूर्ण इकाई जीवन की, जिसमें असार भव-शून्य लीन; आधार अमर, होगी जिस पर

अँधियाली घाटी में – सुमित्रानंदन पंत

अँधियाली घाटी में सहसा हरित स्फुलिंग सदृश फूटा वह! वह उड़ता दीपक निशीथ का,-- तारा-सा आकर टूटा वह! जीवन के इस अन्धकार में मानव-आत्मा का प्रकाश-कण जग सहसा, ज्योतित कर देता मानस के चिर गुह्य कुंज-वन!

मिट्टी का गहरा अंधकार – सुमित्रानंदन पंत

मिट्टी का गहरा अंधकार डूबा है उसमें एक बीज,-- वह खो न गया, मिट्टी न बना, कोदों, सरसों से क्षुद्र चीज! उस छोटे उर में छिपे हुए हैं डाल-पात औ’ स्कन्ध-मूल,