विजयी के सदृश जियो रे – रामधारी सिंह ‘दिनकर’

वैराग्य छोड़ बाँहों की विभा संभालो  चट्टानों की छाती से दूध निकालो  है रुकी जहाँ भी धार शिलाएं तोड़ो  पीयूष चन्द्रमाओं का पकड़ निचोड़ो  चढ़ तुंग शैल शिखरों पर सोम पियो रे  योगियों नहीं विजयी के सदृश जियो रे! 

रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद – रामधारी सिंह ‘दिनकर’

रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,  आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है!  उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,  और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है।  जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ?  मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते;  और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी  चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते। 

लोहे के मर्द – रामधारी सिंह ‘दिनकर’

पुरुष वीर बलवान, देश की शान, हमारे नौजवान घायल होकर आये हैं। कहते हैं, ये पुष्प, दीप, अक्षत क्यों लाये हो?

निराशावादी – रामधारी सिंह ‘दिनकर’

पर्वत पर, शायद, वृक्ष न कोई शेष बचा, धरती पर, शायद, शेष बची है नहीं घास; उड़ गया भाप बनकर सरिताओं का पानी, बाकी न सितारे बचे चाँद के आस-पास ।

लेन-देन – रामधारी सिंह ‘दिनकर’

लेन-देन का हिसाब लंबा और पुराना है। जिनका कर्ज हमने खाया था, उनका बाकी हम चुकाने आये हैं। और जिन्होंने हमारा कर्ज खाया था, उनसे हम अपना हक पाने आये हैं।

गीत, अगीत – रामधारी सिंह ‘दिनकर’

गीत, अगीत, कौन सुंदर है? गाकर गीत विरह की तटिनी वेगवती बहती जाती है, दिल हलका कर लेने को उपलों से कुछ कहती जाती है। तट पर एक गुलाब सोचता, "देते स्‍वर यदि मुझे विधाता,

विदा लाडो – कुमार विश्वास

विदा लाडो! तुम्हे कभी देखा नहीं गुड़िया, तुमसे कभी मिला नहीं लाडो! मेरी अपनी दुनिया की अनोखी उलझनों में और तुम्हारी ख़ुद की थपकियों से गढ़ रही तुम्हारी अपनी दुनिया की छोटी-छोटी सी घटत-बढ़त में,

शक्ति और क्षमा – रामधारी सिंह ‘दिनकर’

क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल सबका लिया सहारा पर नर व्याघ्र सुयोधन तुमसे कहो, कहाँ, कब हारा?

कलम, आज उनकी जय बोल – रामधारी सिंह ‘दिनकर’

जला अस्थियाँ बारी-बारी चिटकाई जिनमें चिंगारी, जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर लिए बिना गर्दन का मोल कलम, आज उनकी जय बोल।

आशा का दीपक – रामधारी सिंह ‘दिनकर’

यह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल दूर नहीं है थक कर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर नहीं है चिन्गारी बन गयी लहू की बून्द गिरी जो पग से चमक रहे पीछे मुड देखो चरण-चिनह जगमग से शुरू हुई आराध्य भूमि यह क्लांत नहीं रे राही; और नहीं तो पाँव लगे हैं क्यों पड़ने डगमग से