कहते तो हो तुम सब कि बुत-ए-ग़ालिया-मू आए यक मरतबा घबरा के कहो कोई कि वो आए हूँ कशमकश-ए-नज़ा में हाँ जज़्ब-ए-मोहब्बत कुछ कह न सकूँ पर वो मिरे पूछने को आए
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सुना करो मेरी जाँ – कैफ़ि आज़मी
सुना करो मेरी जाँ इन से उन से अफ़साने सब अजनबी हैं यहाँ कौन किस को पहचाने यहाँ से जल्द गुज़र जाओ क़ाफ़िले वालों हैं मेरी प्यास के फूँके हुए ये वीराने मेरी जुनून-ए-परस्तिश से तंग आ गये लोग सुना है बंद किये जा रहे हैं बुत-ख़ाने
कलकत्ते का जो ज़िक्र किया तूने – मिर्ज़ा ग़ालिब
कलकत्ते का जो ज़िक्र किया तूने हमनशीं इक तीर मेरे सीने में मारा के हाये हाये वो सब्ज़ा ज़ार हाये मुतर्रा के है ग़ज़ब वो नाज़नीं बुतान-ए-ख़ुदआरा के हाये हाये
सदियाँ गुजर गयीं – कैफ़ि आज़मी
क्या जाने किसी की प्यास बुझाने किधर गयीं उस सर पे झूम के जो घटाएँ गुज़र गयीं दीवाना पूछता है यह लहरों से बार बार कुछ बस्तियाँ यहाँ थीं बताओ किधर गयीँ
क़यामत है कि सुन लैला – मिर्ज़ा ग़ालिब
क़यामत है कि सुन लैला का दश्त-ए-क़ैस में आना तअज्जुब से वह बोला यूँ भी होता है ज़माने में
वो भी सराहने लगे अरबाबे-फ़न के बाद – कैफ़ि आज़मी
वो भी सरहाने लगे अरबाबे-फ़न के बाद । दादे-सुख़न मिली मुझे तर्के-सुखन के बाद । दीवानावार चाँद से आगे निकल गए ठहरा न दिल कहीं भी तेरी अंजुमन के बाद ।
उग रहा है दर-ओ-दीवार – मिर्ज़ा ग़ालिब
उग रहा है दर-ओ-दीवार
वो कभी धूप कभी छाँव लगे – कैफ़ि आज़मी
वो कभी धूप कभी छाँव लगे । मुझे क्या-क्या न मेरा गाँव लगे । किसी पीपल के तले जा बैठे अब भी अपना जो कोई दाँव लगे ।
आमों की तारीफ़ में – मिर्ज़ा ग़ालिब
हाँ दिल-ए-दर्दमंद ज़म-ज़मा साज़ क्यूँ न खोले दर-ए-ख़ज़िना-ए-राज़ ख़ामे का सफ़्हे पर रवाँ होना शाख़-ए-गुल का है गुल-फ़िशाँ होना
वतन के लिये – कैफ़ि आज़मी
यही तोहफ़ा है यही नज़राना मैं जो आवारा नज़र लाया हूँ रंग में तेरे मिलाने के लिये क़तरा-ए-ख़ून-ए-जिगर लाया हूँ ऐ गुलाबों के वतन


