गाँधी – रामधारी सिंह ‘दिनकर’

देश में जिधर भी जाता हूँ, उधर ही एक आह्वान सुनता हूँ "जड़ता को तोड़ने के लिए भूकम्प लाओ । घुप्प अँधेरे में फिर अपनी मशाल जलाओ । पूरे पहाड़ हथेली पर उठाकर पवनकुमार के समान तरजो । कोई तूफ़ान उठाने को कवि, गरजो, गरजो, गरजो !"

एक विलुप्त कविता – रामधारी सिंह ‘दिनकर’

बरसों बाद मिले तुम हमको आओ जरा बिचारें, आज क्या है कि देख कौम को गम है। कौम-कौम का शोर मचा है, किन्तु कहो असल में कौन मर्द है जिसे कौम की सच्ची लगी लगन है?

एक पत्र – रामधारी सिंह ‘दिनकर’

मैं चरणॊं से लिपट रहा था, सिर से मुझे लगाया क्यों? पूजा का साहित्य पुजारी पर इस भाँति चढ़ाया क्यों? गंधहीन बन-कुसुम-स्तुति में अलि का आज गान कैसा? मन्दिर-पथ पर बिछी धूलि की पूजा का विधान कैसा?

परदेशी – रामधारी सिंह ‘दिनकर’

माया के मोहक वन की क्या कहूँ कहानी परदेशी? भय है, सुन कर हँस दोगे मेरी नादानी परदेशी! सृजन-बीच संहार छिपा, कैसे बतलाऊं परदेशी? सरल कंठ से विषम राग मैं कैसे गाऊँ परदेशी?

कुंजी – रामधारी सिंह ‘दिनकर’

घेरे था मुझे तुम्हारी साँसों का पवन, जब मैं बालक अबोध अनजान था। यह पवन तुम्हारी साँस का सौरभ लाता था। उसके कंधों पर चढ़ा मैं जाने कहाँ-कहाँ आकाश में घूम आता था।

हो कहाँ अग्निधर्मा नवीन ऋषियों – रामधारी सिंह ‘दिनकर’

कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियो। श्रवण खोलो¸ रूक सुनो¸ विकल यह नाद कहां से आता है। है आग लगी या कहीं लुटेरे लूट रहे? वह कौन दूर पर गांवों में चिल्लाता है?

जियो जियो अय हिन्दुस्तान – रामधारी सिंह ‘दिनकर’

जाग रहे हम वीर जवान, जियो जियो अय हिन्दुस्तान ! हम प्रभात की नई किरण हैं, हम दिन के आलोक नवल, हम नवीन भारत के सैनिक, धीर,वीर,गंभीर, अचल । हम प्रहरी उँचे हिमाद्रि के, सुरभि स्वर्ग की लेते हैं । हम हैं शान्तिदूत धरणी के, छाँह सभी को देते हैं। वीर-प्रसू माँ की आँखों के हम नवीन उजियाले हैं गंगा, यमुना, हिन्द महासागर के हम रखवाले हैं। तन मन धन तुम पर कुर्बान, जियो जियो अय हिन्दुस्तान !

बालिका से वधू – रामधारी सिंह ‘दिनकर’

माथे में सेंदूर पर छोटी दो बिंदी चमचम-सी,  पपनी पर आँसू की बूँदें  मोती-सी, शबनम-सी।  लदी हुई कलियों में मादक टहनी एक नरम-सी, यौवन की विनती-सी भोली, गुमसुम खड़ी शरम-सी।

आग की भीख – रामधारी सिंह ‘दिनकर’

धुँधली हुईं दिशाएँ, छाने लगा कुहासा,  कुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँ-सा।  कोई मुझे बता दे, क्या आज हो रहा है;  मुँह को छिपा तिमिर में क्यों तेज रो रहा है?  दाता, पुकार मेरी, संदीप्ति को जिला दे,  बुझती हुई शिखा को संजीवनी पिला दे।  प्यारे स्वदेश के हित अंगार माँगता हूँ।  चढ़ती जवानियों का श्रृंगार मांगता हूँ। 

ध्वज-वंदना – रामधारी सिंह ‘दिनकर’

नमो स्वतंत्र भारत की ध्वजा, नमो, नमो! नमो नगाधिराज-शृंग की विहारिणी! नमो अनंत सौख्य-शक्ति-शील-धारिणी! प्रणय-प्रसारिणी, नमो अरिष्ट-वारिणी! नमो मनुष्य की शुभेषणा-प्रचारिणी! नवीन सूर्य की नई प्रभा, नमो, नमो! नमो स्वतंत्र भारत की ध्वजा, नमो, नमो!