कुछ शेर  – जावेद अख़्तर

गिन गिन के सिक्के हाथ मेरा खुरदरा हुआ
जाती रही वो लम्स की नर्मी, बुरा हुआ
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ऊँची इमारतों से मकां मेरा घिर गया
कुछ लोग मेरे हिस्से का सूरज भी खा गए
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कौन-सा शे’र सुनाऊँ मैं तुम्हें, सोचता हूँ
नया मुब्हम है बहुत और पुराना मुश्किल
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ख़ुशशकल भी है वो, ये अलग बात है, मगर
हमको ज़हीन लोग हमेशा अज़ीज़ थे
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हमको उठना तो मुँह अँधेरे था
लेकिन इक ख़्वाब हमको घेरे था
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सब का ख़ुशी से फ़ासला एक क़दम है
हर घर में बस एक ही कमरा कम है
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अपनी वजहे-बरबादी सुनिये तो मज़े की है
ज़िंदगी से यूँ खेले जैसे दूसरे की है
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इस शहर में जीने के अंदाज़ निराले हैं
होठों पे लतीफ़े हैं आवाज़ में छाले हैं
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गली में शोर था मातम था और होता क्या
मैं घर में था मगर इस गुल में कोई सोता क्या
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आज की दुनिया में जीने का क़रीना समझो
जो मिलें प्यार से उन लोगों को ज़ीना समझो
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कम से कम उसको देख लेते थे
अब के सैलाब में वो पुल भी गया
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ऐ सफ़र इतना रायगाँ तो न जा
न हो मंज़िल कहीं तो पहुँचा दे
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लो देख लो यह इश्क़ है ये वस्ल है ये हिज़्र
अब लौट चलें आओ बहुत काम पड़ा है
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वह शक्ल पिघली तो हर शय में ढल गयी जैसे
अजीब बात हुई है उसे भुलाने में
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वो नहर एक क़िस्सा है दुनिया के वास्ते
फ़रहाद ने तराशा था ख़ुद को चटान पर
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मिरे वुजूद से यूँ बेख़बर है वो जैसे
वो एक धूपघड़ी है मैं रात का पल हूँ
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उन चराग़ों में तेल ही कम था
क्यों गिला फिर हमें हवा से रहे
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मेरी बुनियादों में कोई टेढ़ थी
अपनी दीवारों को क्या इल्ज़ाम दूँ
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तुम्हें भी याद नहीं और मैं भी भूल गया
वो लम्हा कितना हसीं था मगर फ़ुज़ूल गया
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आगही से मिली है तनहाई
आ मिरी जान मुझको धोखा दे
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रात सर पर है और सफ़र बाकी
हमको चलना ज़रा सवेरे था
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सब हवाएँ ले गया मेरे समंदर की कोई
और मुझको एक कश्ती बादबानी दे गया
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पहले भी कुछ लोगों ने जौ बो कर गेहूँ चाहा था
हम भी इस उम्मीद में हैं लेकिन कब ऐसा होता है
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मेरे कुछ पल मुझको दे दो बाकी सारे दिन लोगो
तुम जैसा जैसा कहते हो सब वैसा वैसा होगा

जावेद अख़्तर

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