सुनता हूँ, मैंने भी देखा,
काले बादल में रहती चाँदी की रेखा!
कालेबादलजातिद्वेषके,
कालेबादलविश्वक्लेशके,
कालेबादलउठतेपथपर
नवस्वतंत्रताकेप्रवेशके!
सुनता आया हूँ, है देखा,
काले बादल में हँसती चाँदी की रेखा!
आजदिशाहैंघोरअँधेरी
नभमेंगरजरहीरणभेरी,
चमकरहीचपलाक्षण–क्षणपर
झनकरहीझिल्लीझन–झनकर!
नाच-नाच आँगन में गाते केकी-केका
काले बादल में लहरी चाँदी की रेखा।
कालेबादल, कालेबादल,
मनभयसेहोउठताचंचल!
कौनहृदयमेंकहतापलपल
मृत्युआरहीसाजेदलबल!
आग लग रही, घात चल रहे, विधि का लेखा!
काले बादल में छिपती चाँदी की रेखा!
मुझेमृत्युकीभीतिनहींहै,
परअनीतिसेप्रीतिनहींहै,
यहमनुजोचितरीतिनहींहै,
जनमेंप्रीतिप्रतीतिनहींहै!
देशजातियोंकाकबहोगा,
नवमानवतामेंरेएका,
कालेबादलमेंकलकी,
सोनेकीरेखा!
काव्यशालाद्वाराप्रकाशितसुमित्रानंदनपंतजीकीरचनाएँ
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नक्षत्र (शीघ्र प्रकाशित होंगी)
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बादल (शीघ्र प्रकाशित होंगी)
अच्छी कविता है लेकिन सभी शब्दों को मिलाकर लिखा गया है। स्पेस देना जरूरी है।
My blog– roopkumar2012
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