कहा मैंने – मीर तकी “मीर”

कहा मैंने कितना है गुल का सबात
कली ने यह सुनकर तब्बसुम किया

जिगर ही में एक क़तरा खूं है सरकश
पलक तक गया तो तलातुम किया

किसू वक्त पाते नहीं घर उसे
बहुत ‘मीर’ ने आप को गम किया

मीर तकी “मीर”

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10 thoughts on “कहा मैंने – मीर तकी “मीर”

  1. बड़ी आरज़ू थी साहिबा को आगोश-ए-जिंदगी की.
    अपने दिल का किया मैंने तो आरज़ू ख़ाक हो चली.
    इबादत किया जिंदगी को ख़ाक में मिलाकर.
    ख़ाक तो न हुई गुले-गुलिस्ताँ हो चली.

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