लोहे के पेड़ हरे होंगे – रामधारी सिंह ‘दिनकर’

लोहे के पेड़ हरे होंगे,  तू गान प्रेम का गाता चल, नम होगी यह मिट्टी ज़रूर,  आँसू के कण बरसाता चल। सिसकियों और चीत्कारों से, जितना भी हो आकाश भरा, कंकालों क हो ढेर, खप्परों से चाहे हो पटी धरा । आशा के स्वर का भार,  पवन को लेकिन, लेना ही होगा,

जब आग लगे – रामधारी सिंह ‘दिनकर’

सीखो नित नूतन ज्ञान,नई परिभाषाएं, जब आग लगे,गहरी समाधि में रम जाओ; या सिर के बल हो खडे परिक्रमा में घूमो। ढब और कौन हैं चतुर बुद्धि-बाजीगर के? गांधी को उल्‍टा घिसो और जो धूल झरे, उसके प्रलेप से अपनी कुण्‍ठा के मुख पर, ऐसी नक्‍काशी गढो कि जो देखे, बोले, आखिर , बापू भी और बात क्‍या कहते थे?

उपेक्षा – सुभद्रा कुमारी चौहान

इस तरह उपेक्षा मेरी,  क्यों करते हो मतवाले! आशा के कितने अंकुर,  मैंने हैं उर में पाले॥ विश्वास-वारि से उनको,  मैंने है सींच बढ़ाए। निर्मल निकुंज में मन के,  रहती हूँ सदा छिपाए॥

भगवान के डाकिए – रामधारी सिंह ‘दिनकर’

पक्षी और बादल, ये भगवान के डाकिए हैं जो एक महादेश से दूसरें महादेश को जाते हैं। हम तो समझ नहीं पाते हैं मगर उनकी लाई चिट्ठियाँ पेड़, पौधे, पानी और पहाड़ बाँचते हैं।

इसका रोना – सुभद्रा कुमारी चौहान

तुम कहते हो - मुझको इसका रोना नहीं सुहाता है | मैं कहती हूँ - इस रोने से अनुपम सुख छा जाता है || सच कहती हूँ, इस रोने की छवि को जरा निहारोगे | बड़ी-बड़ी आँसू की बूँदों पर मुक्तावली वारोगे || 1 ||

भारत – रामधारी सिंह ‘दिनकर’

सीखे नित नूतन ज्ञान,नई परिभाषाएं, जब आग लगे,गहरी समाधि में रम जाओ; या सिर के बल हो खडे परिक्रमा में घूमो। ढब और कौन हैं चतुर बुद्धि-बाजीगर के? गांधी को उल्‍टा घिसो और जो धूल झरे, उसके प्रलेप से अपनी कुण्‍ठा के मुख पर, ऐसी नक्‍काशी गढो कि जो देखे, बोले, आखिर , बापू भी और बात क्‍या कहते थे?

आराधना – सुभद्रा कुमारी चौहान

जब मैं आँगन में पहुँची,  पूजा का थाल सजाए। शिवजी की तरह दिखे वे,  बैठे थे ध्यान लगाए॥ जिन चरणों के पूजन को  यह हृदय विकल हो जाता। मैं समझ न पाई, वह भी  है किसका ध्यान लगाता?

चांद एक दिन – रामधारी सिंह ‘दिनकर’

हठ कर बैठा चांद एक दिन, माता से यह बोला सिलवा दो माँ मुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला सन-सन चलती हवा रात भर जाड़े से मरता हूँ ठिठुर-ठिठुर कर किसी तरह यात्रा पूरी करता हूँ। आसमान का सफर और यह मौसम है जाड़े का न हो अगर तो ला दो कुर्ता ही को भाड़े का बच्चे की सुन बात, कहा माता ने 'अरे सलोने` कुशल करे भगवान, लगे मत तुझको जादू टोने।

अनोखा दान – सुभद्रा कुमारी चौहान

अपने बिखरे भावों का मैं  गूँथ अटपटा सा यह हार। चली चढ़ाने उन चरणों पर,  अपने हिय का संचित प्यार॥ डर था कहीं उपस्थिति मेरी,  उनकी कुछ घड़ियाँ बहुमूल्य नष्ट न कर दे, फिर क्या होगा  मेरे इन भावों का मूल्य?

जनिया, घूम रही हो कहाँ – ज्ञान प्रकाश सिंह

जनिया, घूम रही हो कहाँ कि पहिने पीत चुनरिया ना।  मनवा तड़प रहा है जैसे जल के बिना मछरिया ना।     सावन मास मेघ घिरि आये, रिम झिम परत फुहरिया,   नाले ताले सब उतराये, भर गई डगर डगरिया।   दसों दिशाएँ लोकित होतीं,जब जब बिजुरी चमके घन में,   जैसे पूर्ण चन्द्र में चमके, बाला तोर सजनिया ना।