अभी नर जनम की बजी भी बधाई। रही आँख सुधा बुधा अभी खोल पाई। समझ बूझ थी जिन दिनों हाथ आई। रही जब उपज की झलक ही दिखाई। कहीं की अंधेरी न थी जब कि टूटी। न थी ज्ञान सूरज किरण जब कि फूटी।1। तभी एक न्यारी कला रंग लाई। हमारे बड़ों के उरों में समाई। दिखा पंथ पारस बनी काम आई। फबी और फूली फली जगमगाई। उसी से हुआ सब जगत में उँजाला। गया मूल सारे मतों का निकाला।2
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वायु के प्रति – सुमित्रानंदन पंत
प्राण! तुम लघु लघु गात! नील नभ के निकुंज में लीन, नित्य नीरव, नि:संग नवीन, निखिल छवि की छवि! तुम छवि हीन अप्सरी-सी अज्ञात!
घंटा – सुमित्रानंदन पंत
नभ की है उस नीली चुप्पी पर घंटा है एक टंगा सुन्दर, जो घडी घडी मन के भीतर कुछ कहता रहता बज बज कर। परियों के बच्चों से प्रियतर, फैला कोमल ध्वनियों के पर कानों के भीतर उतर उतर
माता-पिता – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
उसके ऐसा है नहीं अपनापन में आन। पिता आपही अवनि में हैं अपना उपमान।1। मिले न खोजे भी कहीं खोजा सकल जहान। माता सी ममतामयी पाता पिता समान।2। जो न पालता पिता क्यों पलना सकता पाल। माता के लालन बिना लाल न बनते लाल।3।
लहरों का गीत – सुमित्रानंदन पंत
अपने ही सुख से चिर चंचल हम खिल खिल पडती हैं प्रतिपल, जीवन के फेनिल मोती को ले ले चल करतल में टलमल!
गुणगान – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
गणपति गौरी-पति गिरा गोपति गुरु गोविन्द। गुण गावो वन्दन करो पावन पद अरविन्द।1। देव भाव मन में भरे दल अदेव अहमेव। गिरि गुरुता से हैं अधिक गौरव में गुरुदेव।2। पाप-पुंज को पीस गुरु त्रिविध ताप कर दूर। हैं भरते उर-भवन में भक्ति-भाव भरपूर।3।
सांध्य वंदना – सुमित्रानंदन पंत
जीवन का श्रम ताप हरो हे! सुख सुषुमा के मधुर स्वर्ण हे! सूने जग गृह द्वार भरो हे! लौटे गृह सब श्रान्त चराचर नीरव, तरु अधरों पर मर्मर, करुणानत निज कर पल्लव से विश्व नीड प्रच्छाय करो हे!
आदर्श – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
लोक को रुलाता जो था राम ने रुलाया उसे हम खल खलता के खले हैं कलपते। काँपता भुवन का कँपाने वाला उन्हें देख हम हैं बिलोक बल-वाले को बिलपते। हरिऔधा वे थे ताप-दाता ताप-दायकों के हम नित नये ताप से हैं आप तपते। रोम रोम में जो राम-काम रमता है नहीं नाम के लिए तो राम नाम क्या हैं जपते।1।
जग के उर्वर-आँगन में – सुमित्रानंदन पंत
जग के उर्वर-आँगन में बरसो ज्योतिर्मय जीवन! बरसो लघु-लघु तृण, तरु पर हे चिर-अव्यय, चिर-नूतन!
कमनीय कामनाएँ – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
वर-विवेक कर दान सकल-अविवेक निवारे। दूर करे अविनार सुचारु विचार प्रचारे। सहज-सुतति को बितर कुमति-कालिमा नसावे। करे कुरुचि को विफल सुरुचि को सफल बनावे। भावुक-मन-सुभवन में रहे प्रतिभा-प्रभा पसारती। भव-अनुपम-भावों से भरित भारत-भूतल-भारती।1।


