पिता के महत्व को ना कम आंकिय माँ की हर ख़ुशी को पिता से भी बांटिए माँ यदि ममता है तो पिता पुरूषार्थ है पिता बिन जग में ना कोई परमार्थ है हर अर्थ व्यर्थ है यदि पिता असमर्थ है पिता से ही घर का हर कोना समर्थ है
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सेवा -1 – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
जो मिठाई में सुधा से है अधिक। खा सके वह रस भरा मेवा नहीं। तो भला जग में जिये तो क्या जिये। की गयी जो जाति की सेवा नहीं।1। हो न जिसमें जातिहित का रंग कुछ। बात वह जी में ठनी तो क्या ठनी। हो सकी जब देश की सेवा नहीं। तब भला हमसे बनी तो क्या बनी।2।
ताज – सुमित्रानंदन पंत
हाय! मृत्यु का ऐसा अमर, अपार्थिव पूजन? जब विषण्ण, निर्जीव पड़ा हो जग का जीवन! संग-सौध में हो शृंगार मरण का शोभन, नग्न, क्षुधातुर, वास-विहीन रहें जीवित जन?
सेवा – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
देख पड़ी अनुराग-राग-रंजित रवितन में। छबि पाई भर विपुल-विभा नीलाभ-गगन में। बर-आभा कर दान ककुभ को दुति से दमकी। अन्तरिक्ष को चारु ज्योतिमयता दे चमकी। कर संक्रान्ति गिरि-सानु-सकल को कान्त दिखाई। शोभितकर तरुशिखा निराली-शोभा पाई। कलित बना कर कनक कलश को हुई कलित-तर। समधिक-धवलित सौधा-धाम कर बनी मनोहर।
तितली – सुमित्रानंदन पंत
नीली, पीली औ’ चटकीली पंखों की प्रिय पँखड़ियाँ खोल, प्रिय तिली! फूल-सी ही फूली तुम किस सुख में हो रही डोल? चाँदी-सा फैला है प्रकाश, चंचल अंचल-सा मलयानिल, है दमक रही दोपहरी में
धधक पौरुष की – विकास कुमार
मैं चला उस ओर जिधर सूर्य की किरणें असीम प्रसुप्त पौरुष की रगों में धधकाने ज्वाला असीम विकट हुआ प्रशीतन अब और चुप न रह पाऊंगा
समझ का फेर – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
है भरी कूट कूट कोर कसर। माँ बहन से करें न क्यों कुट्टी। लोग सहयोग कर सकें कैसे। है असहयोग से नहीं छुट्टी।1। मेल बेमेल जाति से करके। हम मिटाते कलंक टीके हैं। जाति है जा रही मिटी तो क्या। रंग में मस्त यूनिटी के हैं।2।
सन्ध्या – सुमित्रानंदन पंत
कहो, तुम रूपसि कौन? व्योम से उतर रही चुपचाप छिपी निज छाया-छबि में आप, सुनहला फैला केश-कलाप,-- मधुर, मंथर, मृदु, मौन! मूँद अधरों में मधुपालाप
शून्य – विकास कुमार
रह गए हैं कुछ पीले पत्ते अधूरे ख्वाब बुझी राख उजड़ा जमाना कातिल अकाल औऱ बिखरे तिनके मेरे भीतर मेरे जहन में बहुत अंदर तक। अब मैं मैं नहीं ना ही वो हरे भरे पत्ते हैं न ही वो संजीले ख्वाब हैं
उलटी समझ – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
जाति ममता मोल जो समझें नहीं। तो मिलों से हम करें मैला न मन। देश-हित का रंग न जो गाढ़ा चढ़ा। तो न डालें गाढ़ में गाढ़ा पहन।1। धूल झोंकें न जाति आँखों में। फाड़ देवें न लाज की चद्दर। दर बदर फिर न देश को कोसें। मूँद हित दर न दें पहन खद्दर।2।





